रतलाम से बामुश्किल चालीस कोस दूर जनजाति बाहुल्य रावटी और बाजना गाँव। 6 साल पहले यहाँ की बंजर जमीन पर घास भी नहीं उगती थी। अब इसी जगह यहाँ आम के लगभग पचास हजार पौधे हैं। यह सम्भव हुआ किसानों की सामूहिक मेहनत से, जिन्होंने पानी को बचाया और जैविक खेती के तरीके को अपनाकर खेती में नए अध्याय जोड़े हैं। यह सफलता अब आसपास के कई गाँवों में दोहराई जा रही है, करीब सोलह सौ किसान पानी की बचत और खाद से आम की खेती करके मालामाल होने की राह पर हैं। खास बात यह है कि यह आम सूबे से बाहर राजस्थान और गुजरात की मण्डियों में भी पहुँच रहे हैं।
आदिवासियों की जिन्दगी में यदि आशा का नया प्रकाश आया है तो इसका क्रेडिट गैर सामाजिक संस्थानों को जाता है। ऐसी ही एक संस्थान ने यहाँ परियोजना के तहत प्रदेश में आमों की जैविक बाड़ी तैयार कराई। सामाजिक कार्यकर्ता वरन सिंह बताते हैं कि पाँच सौ एकड़ की बंजर ज़मीन पर जब यह काम शुरू किया गया तब यहाँ हरियाली की चादर बिछाने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था।
जब यहाँ बाड़ी के पास पानी की बचत के लिये टंकियों का निर्माण किया गया और उसी के साथ जैविक खाद उपयोग में लाई गई तो खुशहाली की नई फसल आकार लेने लगी। आज दो हजार एकड़ की पथरीली पहाड़ियों पर दशहरी, लंगड़ा और नीलम जैसी आमों की किस्मों को आदिवासी लोग उगा रहे हैं। हजारों की तादाद में लहलहा रहे आमों के पेड़ जैविक खाद पर आधारित खेती से तैयार किए गए हैं। यही वजह है कि यहाँ अमरुद, पपीते, जामफल, सब्जियों, फूलों और जड़ी-बूटियों की माँग मण्डियों में बनी रहती है।
कमा रहे दो गुना मुनाफ़ा
आम की बाड़ी में सब्जियों के अलावा हल्दी और अदरक भी पैदा की जाने लगी है। इससे आदिवासी और स्थानीय किसानों को दोहरा मुनाफ़ा मिल रहा है। इन किसानों द्वारा एक दर्जन से अधिक खेतों में हल्दी का उत्पादन किया जा रहा है। जैविक खाद से उपजी इस हल्दी की माँग गुजरात के वड़ोदरा और दाहोद में बढ़ रही है। इससे उत्साहित होकर इलाके के कुछ गाँवों में किसानों ने विकास समिति बना ली है। यहाँ के किसान अब नई-नई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं और कम-से-कम साल में दो बार फसल ले रहे हैं।
साभार: इंडिया वाटर पोर्टल