क्या हम भी औरों से होंगे ?
मां के उर को ऊसर कहकर
मां का दर ठुकराने वाले
हम भी क्या बेपैंदी वाले
उन ‘काले-गोरों8 से होंगे ?
आओ हम दर्पण में झांकें
अपनी औकातों को आंके
बैठें, सोचे, खोजें ये सब
किसने लूटा अपना वैभव ?
जिसका नहीं विश्व में सानी
यह मिट्टी यह तेरी मिट्टी
यह मिट्टी यह मेरी मिट्टी
अब इस मिट्टी के प्रसून की
रंगत पल-पल बिगड़ रही है
इसकी ओस, तितलियां, खुशबू
देखो दर-दर भटकरही हैं
जिस मिट्टी के सुमन ने हमको
अब तक केवल दिया-दिया है
क्या हमने भी उसकी खातिर
अपना कुछ कर्तव्य किया है ?
आज सुमन की आंखे नम हैं
इसे चाहने वाले कम हैं
ऐसे बेदर्दी-मौसम में
सोचें आज कहां पर हम है।
साथ छोड़ कर चले गए जो
हा! इस मुरझा रहे सुमन का
क्या हम भी तन-मन के काले
उन कृतघ्न भौंरों से होंगे ?
क्या हम भी औरों से होंगे ?