दवा परीक्षण का दंश झेलते गरीब

इंदौर के बहुचर्चित अवैध चिकित्सीय परीक्षण मामले के खुलासे के बाद राज्य की शिवराज सरकार से उम्मीद थी कि वह उन अस्पतालों, जहां ये गैर कानूनी ड्रग ट्रायल हुए और वे डॉक्टर जो इस अपराध में शामिल थे उनके खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही करती। परंतु इन तमाम उम्मीदों के खिलाफ सरकार की नजर में इस संगीन और अमानवीय अपराध की सजा महज 5 हजार रुपया जुर्माना भर है। सरकार ने मरीजों की जान की शर्त पर किए जा रहे अनैतिक चिकित्सीय परीक्षण के जुर्माने की कीमत सिर्फ 5 हजार रुपये आंकी है। गैर कानूनी ड्रग ट्रायल के खिलाफ कठोर कानून न होने का रोना रोकर सरकार ने बड़ी ही बेशर्मी से उन 12 डॉक्टरों को बचा लिया जिन पर कि गैर कानूनी ड्रग ट्रायल के दोष साबित हुए थे।

गैर कानूनी ड्रग ट्रायल के खिलाफ यदि सरकार जरा भी संजीदा होती तो न सिर्फ दोषी डॉक्टरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करती बल्कि इस पूरे मामले की जांच सीबीआइ को भी सौंप देती। अलबत्ता, सरकार ने राज्य में भविष्य में ड्रग या क्लीनिकल ट्रायल पर पाबंदी लगाने के निर्देश अवश्य दिए हैं। शिवराज सरकार ने हाल ही में यह कदम एक जांच कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उठाए हैं। सूबे के सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही अस्पतालों में बीते कुछ महीनों से चोरी छिपे मरीजों पर दवा परीक्षण किए जा रहे थे। कई नामी-गिरामी डॉक्टर व्यावसायिक नैतिकता से परे जाकर अपने मरीजों की जान के साथ खिलवाड़ कर रहे थे। इलाज के नाम पर यह घिनौना खेल आगे भी यूं ही बदस्तूर चलता रहता यदि एक स्वयंसेवी संस्था डॉक्टरों के इस गोरखधंधें को उजागर नहीं करती। तकरीबन एक साल पहले जब इस संस्था ने यह खुलासा किया कि इंदौर के कुछ अस्पतालों में बगैर इजाजत के गैर कानूनी ढंग से मरीजों पर चिकित्सीय परीक्षण किए जा रहे हैं, तब इस पर विधानसभा और विधानसभा के बाहर खूब हंगामा हुआ।

 

विपक्ष के दबाव में शिवराज सरकार ने एक जांच कमेटी बैठाई तो उसने भी माना कि सूबे के कुछ अस्पतालों में कायदे-कानूनों को ताक पर रखकर नियम विरूद्ध ड्रग ट्रायल चल रहे हैं। चंद पैसों के लिए हैवान बन गए इन डॉक्टरों ने मानसिक रूप से बीमार लोगों को भी नहीं बख्शा। यहां ऐसे करीब 230 मानसिक रोगियों पर परीक्षण किए गए। जांच कमेटी की रिपोर्ट में ड्रग ट्रायल से संबंधित कई अनियमितताएं सामने निकलकर आई। मसलन इंदौर के जिन छोटे अस्पतालों में मानसिक रोगियों पर परीक्षण किए गए उनका जिला स्वास्थ अधिकारी कार्यालय में पंजीकरण तक नहीं है। ये अस्पताल इंदौर के महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज से संबद्ध हैं, लेकिन उन्होंने इन चिकित्सीय परीक्षणों के लिए निजी अस्पतालों के संगठन की तरफ से गठित आचार संहिता से मंजूरी हासिल की। हालांकि महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज की अपनी सांस्थनिक आचार संहिता की समिति है।

 

इस तरह इंदौर ड्रग ट्रायल के मामले में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया, आइसीएमआर, एमसीआइ, मप्र चिकित्सा शिक्षा प्रमुख के अलावा एथिकल कमेटी के सदस्य तक की विश्वसनीयता कठघरे में है। कमेटी की सिफारिश पर हालांकि मध्य प्रदेश सरकार ने ड्रग ट्रायल पर राज्य में पाबंदी लगा दी है, फिर भी मुल्क में एक ऐसे सख्त कानून की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है जो ऐसे गैर कानूनी परीक्षणों पर लगाम लगा सके। कायदे से जब भी नई दवाओं का इंसानों पर परीक्षण किया जाता है तो इस परीक्षण के लिए नामित विशेषज्ञ कमेटी की संस्तुति और साथ ही स्वास्थ विभाग की इजाजत जरूरी होती है। यही नहीं जिन मरीजों पर दवाओं का परीक्षण किया जाता है उनसे भी सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करवाना लाजमी है। चूंकि ये परीक्षण 3 या 4 दौर में किए जाते हैं इसलिए इसमें दवाओं के बुरे असर की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में लोगों को इन परीक्षणों के लिए रजामंद करवा पाना बेहद मुश्किल काम होता है। बावजूद इसके हमारे देश में यह परीक्षण आसानी से हो रहे हैं। दवा निर्माता कंपनियां बिचौलियों की मदद से सरकार की ठीक नाक के नीचे यह काम बखूबी कर रही हैं। बिचौलिए अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में डॉक्टरों को मुंह मांगी रकम देकर इसके लिए तैयार कर लेते हैं। फिर उसके बाद चोरी छिपे संबंधित दवाओं का परीक्षण किया जाता है।

 

इंदौर और भोपाल के जिन अस्पतालों में इंसानों पर यह गैर कानूनी परीक्षण हो रहे थे, वहां भी बिल्कुल यही तरीका अपनाया गया। आरोप है कि इंदौर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों ने इसके लिए संबंधित कंपनी से तकरीबन 2 करोड़ रुपये लिए। दरअसल आम हिंदुस्तानी का बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की दवाओं के लिए गिनीपिग परीक्षण का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। अमेरिका और यूरोप की बड़ी-बड़ी दवा कंपनियां अपने यहां के सख्त काननों के चलते बरसों से हिंदुस्तान में अपनी दवाओं का परीक्षण कर रही हैं। ड्रग ट्रायल जैसी आधुनिक विधा के लिए या तो हमारे यहां सख्त कानून नही हैं और यदि कानून हैं भी तो वह बेहद नाकाफी हैं। जाहिर है ऐसे में यह दवा कंपनियां परीक्षण के लिए आसानी से डॉक्टरों को खरीद लेती हैं। फिर हमारे यहां जिस तरह की गरीबी और अशिक्षा है उससे मरीजों को यह पता ही नहीं चलता कि डॉक्टर उन्हें जो दवा दे रहे हैं वह सही है या गलत। उनका डॉक्टरों पर पूरा यकीन रहता है लिहाजा परीक्षण के दौरान जिन कागजों पर उनसे दस्तखत करने को कहा जाता है वे कर देते हैं। इंदौर के मेडिकल कॉलेज में भी यही सब कुछ हुआ। मरीजों को अंधेरे में रखकर डॉक्टर चोरी-छिपे दवाओं का परीक्षण करते रहे। वास्तव में ड्रग ट्रायल एलोपैथी की बुनियाद है और हिंदुस्तान जैसे देश में क्लीनिकल ट्रायल की जरूरत न्यायोचित हो सकती है, क्योंकि इसके जरिए देश के करोड़ों लोगों की स्वास्थ्यगत जरूरतों को पूरा करने में मदद मिल सकती है। परंतु यह ड्रग ट्रायल मरीजों की जान की शर्त पर और उनकी जानकारी के अभाव में नहीं किए जा सकते। अस्पताल में अपनी छोटी-बड़ी बीमारियों के इलाज के लिए पहुंचने वाले मरीजों पर देशी-विलायती दवा कंपनियों द्वारा विकसित की जा रही दवाईयों का उनकी जानकारी और इजाजत के बिना प्रयोग करना एक जघन्य अपराध है। जिसकी जितनी भी सजा दी जाए वह कम है।

 

मध्य प्रदेश में उजागर हुए गैर कानूनी ड्रग ट्रायल के मामले के बार अब उस पर सख्ती से लगाम लगाया जाना चाहिए। सरकार चिकित्सीय परीक्षण का प्रभावी नियमन करे ताकि किसी अनियमितता या अनुचित काम को तुरंत रोका जा सके। इन गड़बडि़यों पर रोक लगाने के लिए सरकार क्लीनिकल ट्रायल के उन क्षेत्रों को अपने विनियामक नियंत्रण के तहत लाए जो अब तक विनियमित नहीं किए गए हैं। क्लीनिकल ट्रायल से जुड़े नियमों को मजबूत बनाने के लिए औषधि और प्रसाधन सामग्री नियम 1945 में संशोधन की दरकार है ताकि परीक्षण के चलते मरीज को होने वाली स्वास्थ संबंधी समस्या या उसकी मौत के मामले में वाजिब मुआवजा मिल सके।

लेखक जाहिद खान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

साभारः दैनिक जागरण

 

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