धरती के अस्तित्व को बचाने वाली नादियां अब अपना अस्तित्व खोज रही है…

मीडिया चौपाल से लौटकर “नदी संरक्षण एवं पुनर्जीवन”

विषय पर अपना अनुभव साझा करते

उमा शंकर पटेल

पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ पंडित भया न कोयIMG_1563

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय,

नदियों के मामले में प्रेम के वो ढाई आखर क्या हैं, अधिकांश हम जन-संचारकों (मीडियाकर्मी) में जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण,जल प्रदूषण और सूखती-मरती नदियों के मुद्दों पर निरक्षरता और समझ का अभाव काफी गहरा और बड़ा है। इस तरह के विषयों पर कोई प्रशिक्षण संस्थान अभी तक तो नहीं है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि‘प्रायोजक और टीआरपी के खेल में क्या ऐसे मुद्वे आ सकते हैं। क्रिकेट, बॉलीवुड, चुनावी भाषणों का सीधा प्रसारण या किसी हाई प्रोफाइल मामले में जैसी टीआरपी मिलती है। आखिर गंगा-जमुना और तमाम अन्य नदियों के गंभीर मुद्दे पर क्यों नहीं! इन मुद्दों पर शोध, जागरूकता एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन के प्रयास में जुटे संस्थान ‘स्पंदन’ ने साल २०१२ में एक छोटी सी पहल की थी। कुछ समय पूर्व किया गया एक प्रयास जिसे मीडिया चैपाल के नाम से जाना जाता है। साल २०१५ आते-आते एक निश्चित और व्यापक रूप-आकार ले चुका है।

इस बार‘राष्ट्रीय मीडिया कार्यशाला-२०१५ का आयोजन १०-११ अक्टूबर को जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में‘’नदी संरक्षण एवं पुनर्जीवन’ विषय पर हुआ। मीडिया चैपाल का आयोजन अपनी तरह का अभिनव प्रयोग है, जो देश भर के मीडिया संचारकों को एक मंच पर ला कर उनके अनुभवों को साझा करने का अवसर देता है। संभवतः नये मीडिया के संचारकों का यह अपनी तरह का पहला जमावड़ा रहा। जिसमें देश के शीर्षस्थ ब्लॉगरों, वेब-पोर्टल और सोशल मीडिया में लगातार सक्रिय संचारकों के साथ ही विकास, विज्ञान, पर्यावरण आदि से जुड़े मुद्दों पर जनमत तैयार करने में अहम भूमिका निभाने वाले स्तंभकारों ने भी बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। नए संचार माध्यम की चुनौतियों को समझ कर आपसी विमर्श से उनके समाधान तलाशने की कोशिश का असर धीरे-धीरे ही सही अब दिखाई देने लगा है।

चालिए आते हैं विषय पर। विषय था‘’नदी संरक्षण एवं पुनर्जीवन’। इस कार्यशाला में अधिकतम भागीदारी मीडिया की थी। प्रिन्ट-इलेक्टानिक मीडिया के लोग तो थे ही, वैज्ञानिक,चिंतक, स्तंभकार, आईएएस आदि का जमावड़ा था। औपचारिता के बाद कार्यक्रम षुरू हुआ…आईएएस अधिकारी आयुक्त उमाकांत उमराव के प्रस्तुति ने माथे पर बल दिया, लेकिन फोटो पत्रकारिता करने वाली  डा. कायनात काज़ी द्वारा प्रदर्शित फोटो ने झकझोर दिया। असल में मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति इस कदर बढ़ रही है कि वह गंगा समेत अन्य जीवनदायी नदियों के मूल स्वरूप से भी खिलवाड़ करने से नहीं चूकता। यदि यही हाल रहा तो नदियों के प्रवाह के अनियमित होने का परिणाम मानव के साथ-साथ अन्य जीव प्रजातियों को भी भोगना होगा जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन उत्पन्न होगा। ऐसी स्थिति से बचने के लिए समाज को चाहिए कि नदियों की महत्ता को समझे और उनके मूल स्वरूप को बनाए रखने का प्रयत्न करे ताकि धरती पर जीवन अपने विविध रूपों में खिलखिलाता रहे।

असल में हमें समझने की आवश्यकता है कि नदियां केवल जलधाराएं ही नहीं अपितु जनजीवन और लोक-संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। नदियां सभ्यताओं एवं  संस्कृतियों के साथ-साथ विकास की भी जननी रही हैं। सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास नदी तटों के समीप ही हुआ है। करीब साढे चार हजार वर्ष पूर्व नील नदी के किनारे मिस्र की महान सभ्यता विकसित हुई। मेसोपोटामिया की सभ्यता का विकास ईसा से पैंतीस सौ वर्ष पूर्व टिगरिस नदी के तट पर और भारत की प्राचीन मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु नदी घाटी के किनारे हुआ। नदी तटों के समीप विकसित होने के कारण ही इन प्राचीन सभ्यताओं का नामकरण नदी सभ्यताओं के रूप में किया गया है। पर अब इस सभ्यताओं के साथ-साथ धरती के अस्तित्व को बचाने वाली नादियां अब अपना अस्तित्व खोज रही है। गंगा सदियों, सहस्राब्दियों, युगों-युगों से भारत भूमि के पवित्रता की प्रतीक रही है। भारत की सभ्यता-संस्कृति की जननी है गंगा और उसकी मिट्टी। गंगा और उसकी पारिवारिक सहायक नदियां और सहायक की सहायक नदियां मिल कर बनता है ‘गंगा परिवार’। गंगा परिवार में लगभग १००० छोटी-बड़ी नदियां हैं। हिमालय पुत्री गंगा को लेकर चिंता अपार है। यह चिंता हिमालय को लेकर भी है। हिम पर्वत श्रृंखलाएं ही दर्जनों बड़ी नदियों का मायका हैं। ग्लोबल वार्मिंग, पिघलते धुवों, डूबते देशों और सूखती नदियों के बीच धरती हमसे कुछ कहना चाहती है। क्या हम धरती की आवाज को सुन पा रहे हैं। धरती के कहने के अपने शब्द होते हैं। अपनी भाषा होती है और‘गैजेट और तकनीक भी अपनी ही होती है। क्या हमारे पास उसको समझने के लिए कोई सूत्र है।

नदियां जीवन की गतिशीलता का प्रतीक हैं। अनवरत प्रवाहित रहने वाली नदियां मानव को निरन्तर कार्य करने का संदेश देती हैं। सभ्यता के विकास के साथ नदी और नदी जल के विभिन्न उपयोगों का सिलसिला निरन्तर जारी है। भारत में आदिकाल से ही नदियों के महत्व को समझ लिया गया था। जिसके कारण इन्हें धर्म और जीवन से जोड़ा गया। भारत सहित विश्व भर में नदियां सामाजिक व सांस्कृतिक रचनात्मक कार्यों का केन्द्र स्थल रही हैं। भारत में विशेष अवसरों एवं त्योहारों के समय करोड़ों लोग नदियों में स्नान करते हैं। नदियों के तट पर कुंभ,सिंहस्थ जैसे विशाल मेले दुनिया में केवल भारत में ही देखने में आते हैं, जहां करोड़ों लोग एकत्र होते हैं। इन अवसरों पर विभिन्न स्थानों से आने वाले व्यक्ति अपने विचारों व संस्कृति का आदान-प्रदान करते हैं।

दरअसल साल दर साल हो रही राष्ट्रीय मीडिया चैपालों के चर्चा सत्रों की तीखी, किन्तु बौद्धिक बहसों ने संचार माध्यमों के विभिन्न आयामों को जानने-समझने के बेहतर अवसर दिए हैं। इस माध्यम पर नए सिरे से सार्थक बहस छेड़ी है और इसके सकारात्मक पहलुओं को विज्ञान से जो कर आम लोगों तक पहुंच बनाने के नए- नए रास्ते तलाशने की भुमिका प्रस्तुत की है। डगर कठिन, रास्ता लम्बा है, मगर संकल्प बड़ा…। कहते हैं कि दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे हिमालय सी चुनौती भी नत मस्तक हो जाती है। लिहाजा, चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति…।

(लेखक जनसंचार विषय में शोधार्थी हैं।)

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