विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट ने भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में पेयजल की स्थिति की कलई खोल दी है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रत्येक साल करीब सात लाख 83 हजार लोगों की मौत दूषित पानी और खराब साफ-सफाई की वजह से होती है। इसमें से लगभग साढ़े तीन लाख लोग हैजा, टाइफाइड और आंत्रशोथ जैसी बीमारियों से मौत की भेंट चढ़ जाते हैं। ये बीमारियां दूषित पानी और भोजन, मानव अपशष्टिटों से फैलती हैं। साथ ही हर साल 15000 से ज्यादा लोग मलेरिया, डेंगू और जापानी बुखार की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं। इन बीमारियों के वाहक दूषित पानी, जल जमाव यानी कि पानी के खराब प्रबंधन से फैलते हैं। इस रिपोर्ट से साफ होता है कि लोगों तक साफ पेयजल पहुंचाने को लेकर भारत के सामने कई मुश्किल चुनौतियां हैं। चिंता इसलिए लाजिमी है कि भारत में पानी संबंधी बीमारियों से मरने का खतरा श्रीलंका और सिंगापुर जैसे छोटे और पिछड़े राष्ट्रों से ज्यादा है। जल जनित बीमारियों की रोकथाम की कोशिश करते सरकारी महकमों के दावे महज खोखले साबित हो रहे हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन सचेत कर रहा है कि न तो आम लोगों तक शुद्ध पेयजल पहुंच पा रहा है और भूमिगत जल में लगातार हानिकारक रासायनिक तत्वों की मात्रा बढ़ रही है। दूसरी तरफ केंद्र और राज्य सरकारें पानी की बड़ी लड़ाइयों में व्यस्त दिख रही हैं। वे पेयजल मुहैया कराने का एकमात्र रास्ता नदी जोड़ो परियोजना मानती हैं। उनका मानना है कि देश के वे शहर जो पानी के किनारे नहीं बसे हैं उन तक भी पानी पहुंचना चाहिए। लेकिन आश्चर्य है कि देश के दो बड़े शहर दिल्ली और आगरा यमुना नदी के किनारे बसे होने के बावजूद गंगा पेयजल का इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि आगरा के कई इलाकों में यमुना के पानी का इस्तेमाल पीने के लिए किया जाता है लेकिन शुद्धीकरण के लिए उसमें भारी मात्रा में क्लोरीन मिलाया जाता है। ताजा सर्वेक्षणों के मुताबिक यमुना के पानी में नाइट्राइट और अन्य रासायनिक तत्वों की मात्रा भी दिनोंदिन बढ़ रही है। हाल ही में दिल्ली के रिठाला इलाके के भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा काफी पाई गई है। देश के दूसरे हिस्सों का भी कमोबेश यही हाल है। उत्तरप्रदेश के वाराणसी में भूमिगत जल में अमोनिया की मात्रा बढ़ी है तो बिहार में भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा पाई गई है। इस तरह के हानिकारक रासायनिक तत्वों की पानी में मौजूदगी से सफेद दाग जैसे चर्म रोग के मामले ज्यादा आ रहे हैं। दरअसल हमारे कल-कारखानों से निकला कचरा और रासायनिक पानी नदियों और भूमिगत जल में जाकर मिलता जा रहा है और इससे पीने के पानी में रासायनिक तत्वों की मात्रा बढ़ रही है। देश के कई सीवेज प्लांट या तो अंतरराष्ट्रीय मापदंड के अनुसार काम नहीं कर रहे हैं या बंद पड़े हैं।
जाहिर है कि शहरी लोगों को दूषित अवस्था में पेयजल मिल रहा है। एक बड़ा मसला पेयजल का पाइप लीकेज करने का भी है। इस वजह से सीवेज का गंदा पानी पेयजल के पाइप में मिल जाता है। एक आकलन के मुताबिक वाटरपाइप के लीकेज होने से 30 से 40 फीसद पानी दूषित हो जाता है। पेयजल का रख-रखाव भी एक गंभीर मसला है। पिछले साल ही बाहरी दिल्ली के एक स्कूल के पानी की टंकी में मरी हुईं छिपकलियां देखी गई। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि महानगरों का प्रत्येक इलाका अपने बजट का बड़ा हिस्सा पीने के पानी के प्रबंधन और रख-रखाव पर खर्च करता है लेकिन अगर उन इलाकों की सभी पानी टंकियों की जांच की जाए तो दूषित पानी का सबसे बड़ा जमावड़ा वहीं मिलेगा। टंकियों में मच्छरों का लार्वा जरूर दिख जाएगा। फिर यहीं से मलेरिया, डेंगू, कालाजार और जापानी बुखार फैलता है। इस साल डेंगू का पहला मामला दिल्ली से ही आया है। सवाल उठता है कि आखिर पेयजल बजट का सारा पैसा जाता किधर है। दरअसल पेयजल बजट का ज्यादातर हिस्सा भूमिगत जल से पानी प्राप्त करने के लिए बिजली पर खर्च कर दिया जाता है। फिर पाइप लाइन बिछाने, उसका जाल बनाने, टंकियां लगाने वगैरह में बचा खर्च समाप्त कर दिया जाता है। हमारे यहां नगर-निगम और नगरपालिकाओं में पानी के रख-रखाव से लेकर जल जनित बीमारियों के रोकथाम की सारी प्रक्रिया 20-25 साल पुरानी है। आबादी तेजी से बढ़ रही है लेकिन व्यवस्था में कोई बदलाव या सुधार नहीं हुआ है। पहले जल जनित बीमारियां बारिश के मौसम में फैलती थीं, अब हर मौसम में फैल रही हैं। चुनावी वायदे और विकास के रोड मैप को बनाए रखने के चक्कर में आनन-फानन में पूरी व्यवस्था कर ली जाती है। लेकिन पेयजल को दूषित होने से कैसे रोका जाए, इस आधार किसी की नजर नहीं जाती है। तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद देश के शहरी लोगों को शुद्ध पेयजल मयस्सर नहीं हो रहा है, ऐसे में ग्रामीण तबकों की बात करनी तो बेमानी है। साभार राष्ट्रीय सहारा