अभिलाषा दिवेदी
करीब तीन साल पहले की घटना है। मध्य प्रदेश के एक धनाढ्य परिवार ने, जो मुंबई में जा बसा था, अहले सुबह मुझे फोन किया। उनका इकलौता बेटा दिल्ली के डीपीएस में 12वीं कक्षा में पढ़ता था। वह उन दिनों गुमसुम रहने लगा था और उसकी असामान्य हरकतें कुछ अनहोनी का इशारा कर रही थीं। मैंने मुलाकात की हामी भरी, तो कुछ देर में ही उसकी मां अपने बेटे को ले आईं। वह बच्चा इसलिए अपने जीवन से निराश हो गया था कि किसी आयोजन के सिलसिले में पाकिस्तान में उसने जो प्रोजेक्ट बनाए थे, उसे किसी ने अपना नाम दे दिया था। यानी, उसके हिस्से की तारीफ किसी दूसरे ने हड़प ली थी। इससे उसे गहरा सदमा लगा था, और वह खुद को नुकसान पहुंचाने की सोचने लगा था। भला हो, उसके दोस्तों का कि उन्होंने उसके पिता को पूरी बात बता दी, जिससे समय पर उस बच्चे को सहारा मिल सका।
इस अतिसंवेदनशील बच्चे जैसी किस्मत सबकी नहीं होती। उसकी मदद के लिए दोस्त थे, हाथ थामने के लिए माता-पिता और मानसिक संबल देने के लिए डॉक्टर। मगर देश में न जाने कितने लोग इस तरह का भावनात्मक सहारा न मिल पाने की वजह से खुदकुशी कर लेते हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर चार मिनट में एक आत्महत्या होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मानें, तो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में सबसे ज्यादा खुदकुशी भारत में ही होती है। यहां आत्महत्या दर प्रति एक लाख पर 16.5 है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि साल 2016 में (इसके बाद रिपोर्ट जारी नहीं की गई है) दुनिया भर में आत्महत्या के कुल मामलों में भारत में महिलाओं की आत्महत्या दर 37 फीसदी और पुरुषों की 25 फीसदी थी। जाहिर है, आत्महत्या की रोकथाम पर बात करने की सख्त जरूरत है।
लोग कई वजहों से अपनी जान देते हैं। मगर सबसे बड़ा कारण अवसाद यानी डिप्रेशन है। इसीलिए यह बीमारी आज विश्व की बड़ी समस्याओं में एक बन गई है। पूरी दुनिया में 30 करोड़ से अधिक लोग इससे पीड़ित हैं। हमें यह समझना होगा कि अवसाद का हमारे व्यक्तित्व, पृष्ठभूमि, वर्ग, स्थिति या सफलता से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि किसी भी अन्य बीमारी की तरह यह भी एक रोग है, जिसका इलाज संभव है। सिर्फ इसी सोच को यदि हम अपना लें, तो आत्महत्या के मामलों में खासा गिरावट लाई जा सकती है। मगर फिलहाल ऐसा होता दिख नहीं रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन बताता है कि दुनिया भर में करीब आठ लाख लोग हर साल आत्महत्या करते हैं। यह स्थिति तब है, जब सतत विकास लक्ष्य में आत्महत्या से रोकथाम भी एक महत्वपूर्ण लक्ष्य घोषित है। गहरा सदमा, यौन शोषण, आर्थिक संकट, रिश्ते का टूटना जैसे कई कारणों से लोग खुदकुशी करते हैं। मगर भारत में इसकी एक बड़ी वजह परिवार नामक संस्था का दरकना भी है। आत्म-केंद्रित इंसान में यह समस्या ज्यादा होती है। दरअसल, मानव मस्तिष्क में न्यूरो ट्रांसमीटर होते हैं, जिनमें मौजूद स्ट्रेस हार्मोन छोटी-सी चिंता को भी आवेश में बदल देता है। इसे रोकने के लिए सिरोटोनिन नामक न्यूरो ट्रांसमीटर की जरूरत होती है, जो सामाजिक बने रहने से सक्रिय रहता है। इसीलिए हमें समाज में योगदान देते रहना चाहिए। इसके अलावा, जिस तरह से सीपीआर, यानी कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन (अचानक हार्टअटैक आने पर छाती को तेज-तेज दबाने की प्रक्रिया) सबको आनी चाहिए, उसी तरह से आम लोगों में क्यूपीआर (क्वेस्चन, परस्वेड और रेफर) की जानकारी भी जरूरी है। क्यूपीआर का मतलब है, मरीज से सवाल पूछना, उसे समझाना और परामर्श के लिए डॉक्टर के पास भेजना। आत्महत्या रोकने के लिए व्यक्तिगत, सामुदायिक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग प्रयास किए जाने की जरूरत है। अगर किसी के मन में खुदकुशी के ख्याल आ रहे हैं, तो उसे किसी करीबी से अपनी समस्या साझा करनी चाहिए। पेशेवर परामर्शदाता और मनोचिकित्सक तो काफी कारगर होते ही हैं। इसके अलावा, ऐसे लोग भी सामने आएं, जो हमारे बीच के अतिसंवेदनशील व निर्बल लोगों में विश्वास पैदा कर सकें। क्षणिक आवेश में जान देने पर आमादा लोगों को यह एहसास दिलाना बहुत जरूरी है कि सभी उससे बहुत प्यार करते हैं। इन उपायों से ही आत्महत्या के बढ़ते मामले थामे जा सकते हैं