भारत की ज्ञान-संपदा जितनी लिखित रूप में पुस्तकालयों, शोध संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं और शिक्षण संस्थाओं आदि में उपलब्ध है, उससे कई गुना अधिक वाचिक रूप में वह देश के लोक जीवन में समायी हुई है। जो दादी-नानियां सदियों से अपने पोते-पोतियों और नाती-नातिनों को लोक कथाएं सुनाकर ज्ञान और आचरण के सकारात्मक संस्कारों का बीजारोपण करती थीं, वे अब शनै:-शनै: अपनी इस भूमिका से दूर होती जा रही हैं। परिणामत: लोक जीवन में रची-पगी वाचिक संपदा के लुप्त हो जाने के खतरे बढ़ते जा रहे हैं। ऐसी विकट और चिंतातुर कर देने वाली स्थिति में यदि कोई रचनाकर एक प्रदेश के विभिन्न सांस्कृतिक अंचलों की लोक कथाओं को उनकी नैसर्गिक गरिमा, अर्थवत्ता और आंचलिक खूबसूरती के साथ एक पठनीय संग्रह के रूप में समाज को सौंपता है तो वह एक स्वागतयोग्य बड़ा उपक्रम ही माना जाएगा। यह महत्वपूर्ण उपक्रम किया है युवा पत्रकार एवं लेखक श्री अंजनी कुमार झा ने। उनके द्वारा संकलित और संपादित लोक कथाओं की पुस्तक “मध्य प्रदेश की लोककथाएं” हाल ही में प्रकाशित हुई है। पत्रकारिता के जीवन की अपनी यात्राओं के दौरान श्री अंजनी कुमार झा को अविभाजित म.प्र.के प्राय:सभी अंचलों के साथ आत्मीय साक्षात्कार करने का अवसर भी मिला है। इसी साक्षात्कार की रचनात्मक प्रतिक्रिया है यह लोक कथा संग्रह। इस संग्रह की लोक कथाओं को संकलनकर्ता ने पांच खंडों में बांटा है-मालवी लोक कथाएं, निमाड़ी लोक कथाएं, बुंदेली लोक कथाएं, बघेली लोक कथाएं तथा महाकौशल की लोक कथाएं। ये लोक कथाएं मूलत: मालवी, निमाड़ी, बघेली, बुंदेली और जनजातीय बोलियों के रूप में ग्राम्य लोकजीवन में वि द्यमान हैं और अब भी उसका रंजन कर रही हैं। पुस्तक में इनको खड़ी बोली हिन्दी में प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक रूप में प्रस्तुतीकरण की इस प्रक्रिया में लोककथाओं को भाषांतरण की प्रक्रिया में लेखक ने सूझबूझ एवं परिश्रम के साथ-साथ भाषायी कुशलता और संवेदनशीलता का अच्छा परिचय भी दिया है। संग्रहीत लोक कथाओं का मूल स्वरूप हिन्दी में भी बरकरार रहा है अर्थात लोककथाओं की मूल प्रकृति के साथ सम्पादक ने पूरा-पूरा न्याय किया है। इनमें कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं, जो इन लोक कथाओं की प्रामाणिकता और आंचलिकता को प्रखर रूप में पुष्ट करते हैं। संग्रह की लोक कथाओं के पुनर्लेखन और संपादन में संकलनकर्ता ने पांडित्य प्रदर्शन की किंचित भी चेष्टा नहीं की है। संग्रह की लोककथाओं में परिलक्षित नैसर्गिक सहजता और संप्रेषणीयता इसी का प्रतिफल है। इन लोककथाओं में उनके कहन तत्व के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं हुई है। फलत: प्रतीत होता है कि कथाएं जैसे पढ़ी नहीं, सुनी जा रही है। म.प्र.की वाचिक संपदा को सुरक्षित रखने की यह अनूठी पहल सचमुच स्वागतयोग्य है।
योगेश शर्मा