श्री के.एन. गोविन्दाचार्य की गिनती जहां एक ओर देश के तेज-तर्रार राजनीतिज्ञों में की जाती है, तो वहीं उनकी छवि एक चिंतक, विचारक एवं आंदोलनकारी की भी है। दलगत राजनीति से मुक्त होने के बाद उन्होंने सामाजिक जीवन के विविध क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ी है। पिछले दिनों भारतीय पक्ष की ओर से विमल कुमार सिंह और विवेक त्यागी ने उनसे एक लंबी बातचीत की जिसके प्रमुख अंश भारतीय पक्ष के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं
अध्ययन अवकाश के बाद अब तक जो लगभग ग्यारह वर्ष बीते हैं, उनके बारे में आपका क्या आकलन है?
अध्ययन अवकाश के दौरान मैं जिन निष्कर्षों पर पहुंचा, उनकी उत्तारोतर फष्टि हो रही है। पिछले 10-12 वर्षों में अंधाधुंध वैश्वीकरण की भयावहता साफ-साफ तौर पर रेखांकित हुई है। भूमि अधिग्रहण के मामले में सरकारें बड़ी कंपनियों की एजेंट बन गई हैं। जगह-जगह भूमि से संबंधित संघर्ष बढ़ रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहने वालों की जिन्दगी दूभर होती लग रही है। छत्तीसगढ़ में बड़े-बड़े उद्योग समूहों और खदान मालिकों के पक्ष में सारा तंत्र अब काम करता दिखाई पड़ रहा है। उसके कारण सत्ता और जनता का रिश्ता टूट गया है। सत्ता संचालन करने वाले सभी दल एक से लगने लगे हैं। सत्ता पक्ष-विपक्ष का भेद लुप्त हो गया है। जो डेमोक्रेटिक सेट अप कभी ऑफ द पीपल, बाइ द पीपल और फौर द पीपल हुआ करता था, वह अब ऑफ द कारपोरेट्स, बाइ द कारपोरेट्स और फॉर द कारपोरेट्स’ बन गया है। आज अपराध और भ्रष्टाचार का भी वैश्वीकरण हो गया है। चाहे आतंकवाद का विषय हो या हवाला से पैसे बाहर जाने का विषय हो, सब चीजें अब खुलकर सामने आने लगी हैं।
लेकिन वैश्वीकरण के कारण गरीबी घटी है, लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया है?
मैं ऐसा नहीं मानता। छोटे-मोटे अपवादों को यदि छोड़ दें तो ग्रामीण गरीबी नहीं घटी है। विस्थापन-पलायन बढ़ा है। प्राकृतिक साधनों से लोग और वंचित हुए। अब नदियां और तालाब भी कंपनियों की मिल्कीयत हो चले हैं। सार्वजनिक उपयोग की जमीनें अधिग्रहित की जा रही हैं। कुछ हद तक शहरी गरीबी घटी है, लेकिन उसके बदले अपराध, बेरोजगारी और अपसंस्कृति का प्रभाव बढ़ा है। अब शहरों में सब जगह पर एक अजब ढंग का मूल्य क्षरण, अजब ढंग का उपभोक्तावाद, एक एकदम अभारतीय ढंग के जीवन मूल्य पनप रहे हैं। गैरबराबरी तेजी से बढ़ रही है। कुछ लोग 7 हजार करोड़ रुपये का मकान बनाने की सोचने लगे हैं तो वहीं आज भी देश में कपड़े की औसत खपत 14 मीटर ही है। महंगाई बढ़ने के कारण तनख्वाह का कुछ पता ही नहीं चलता। आम आदमी जितना आज से 15 साल पहले जिन्दगी की कशमकश में कष्ट पा रहा था उससे ज्यादा कशमकश स्थितियों में आज पड़ा हुआ है। रास्ते सिमटते जा रहे हैं। इसके कारण असुरक्षा, तनाव और हिंसा समाज में बढ़ी हुई दिखती है। परिवार और समाज के रूप में पहले जो शॉक एब्जार्बर्स थे, वे कमजोर पड़ते नजर आ रहे हैं। मोटे तौर पर मेरे अधययन के जो निष्कर्ष थे वो अब और ज्यादा विकृत रूप में सामने आने लगे हैं। इसके पचासों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक-एक पहलू के बारे में ही एक-एक किताब लिखी जा सकती है। ऐसी स्थिति बन गई है।
वैश्वीकरण की आंधी से कैसे निपटा जा सकता है? क्या हम संभल पाएंगे?
अध्ययन अवकाश के दौरान मैंने कहा था कि भारतीय समाज राजसत्ता पर निर्भर नहीं है। इसीलिए राजसत्ता के प्रतिकूल होने के बाद भी वह बचा हुआ है। पिछले 12 साल में यह बात भी धीरे-धीरे सिद्ध हुई है। पश्चिमी देशों की तरह हमारे यहां सामाजिक सुरक्षा का कोई नेटवर्क नहीं है, पीडीएस सिस्टम कहीं कुछ दिखता नहीं है। मनरेगा के द्वारा जो हो रहा है उसकी क्या हालत है, सभी जानते हैं। इसलिए वैश्वीकरण की विभिषिका से लड़ने में सरकार से कोई मदद नहीं मिलेगी। यह लड़ाई भारत का समाज अपने दम पर लड़ेगा और विजयी होगा। आज यदि भारतीय समाज तमाम मुश्किलों के बीच भी टिका हुआ है तो वह राजसत्ता या राजनेताओं के कारण नहीं बल्कि उनके बावजूद टिका हुआ है। राजसत्ता के लुटेरों को भी पीठ पर लाद कर, उनका भी खाना-खर्चा संभालते हुए समाज चल रहा है, आगे बढ़ रहा है। हमें यदि अपना भविष्य सुरक्षित रखना है तो अपनी सामाजिक पूंजी और सांस्कृतिक परंपराओं को मजबूत बनाना होगा, यही देश की ताकत है।
राष्ट्रीय फनर्निर्माण के तीन प्रमुख स्तंभ हैं-बौद्धिक, रचनात्मक एवं आंदोलनात्मक। तीनों पर बराबर ध्यान देना होगा। तीनों कामों को वेणी की तरह गूंथते चलना होगा। सज्जन शक्ति को इकट्ठा होना होगा। कोई किसी भी विचारधारा से प्रेरित हो, यदि वह गरीबों के हक और हित में काम कर रहा है, देशी सोच और विकेन्द्रीकरण का पक्षधर है तथा अहिंसा में यकीन रखता है, उसे सज्जन शक्ति का अंग माना जाना चाहिए।
वैचारिक धरातल से आगे आपकी जमीनी स्तर पर क्या उपलब्धियां रही हैं?
दीर्घकालिक महत्व की वैचारिक स्पष्टता को जन-जन तक पहुंचाने के साथ हमने तात्कालिक महत्व के विभिन्न मुद्दे भी उठाए। ये मुद्दे जनस्वीकृत हुए हैं, ऐसा भी कहा जा सकता है। 2004 में आकस्मिक रूप से विदेशी मूल का मुद्दा आ गया था। लोगों के समर्थन और भगवत् कृपा से हम सफल रहे। श्रीमती सोनिया गांधी की जगह मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। इसी के साथ राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का जन्म हुआ जो राजसत्ता को अंकुश में रखने के लिए आज भी सक्रिय है।
देश के विविध रचनात्मक कार्यों को जोड़ने का हमने जो सिलसिला प्रारंभ किया, उसका साकार रूप नवम्बर, 2004 में वाराणसी के पास भारत विकास संगम के पहले संगम में दिखाई दिया। उस आयोजन से एक आशा का संचार शुरू हुआ। लोगों को लगा कि सब कुछ गड़बड़ नहीं हो गया है। आज भी बहुत से अच्छे लोग हैं, वे बहुत अच्छे काम कर रहे हैं। सबको भारत विकास संगम के माधयम से एक व्यापक लक्ष्य भी दिखा और विश्वरूप दर्शन भी हुआ तो थोड़ा सा आत्मविश्वास भी बढ़ा। तब लगा कि नहीं विचारधारा कोई भी हो अच्छे लोग हर जगह हैं। ये भी उसमें से प्रतिपादित हुआ।
फिर हमलोग थोड़ा सा आगे बढ़े तो विचारधारा के स्तर पर भी जो लोग थे उनके साथ मिलकर भारत परस्त, गरीब परस्त नीतियों के पक्ष में काम होना चाहिए, समाज का भारतीय दृष्टि से अधययन होना चाहिए। हम अगर सामाजिक पूंजी और सांस्कृतिक परंपराओं की बात करते हैं तो उसका क्या स्वरूप होगा? हम भारत की अपनी अस्मिता की बात करते हैं तो वो क्या होगी? इन्हीं सवालों का जवाब देने के लिए कौटिल्य शोध संस्थान की ओर से दो किताबें प्रकाशित हुईं। सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज की ओर से ‘सनातन भारत जागृत भारत’ और ‘अन्नं बहु कुर्वीत’ का संस्करण भी अपने काम आया। इसी शृंखला में हमलोगों ने भारतीय पक्ष की शुरूआत की थी। इससे हमने साबित किया कि बहुत साफ-सुथरी और समाज के लिए संवेदनशील और विविध आयामों को स्पर्श करते हुए भी पत्रिकाएं निकाली जा सकती हैं।
कौटिल्य शोध संस्थान का काम करते हुए हमारे सामने गौ का विषय आया। तब 2006-07 में विश्व गौ सम्मेलन वाला विषय चला था। उसी दौरान बिहार में अलख यात्रा चली थी। इन दोनों के माधयम से थोड़ी बहुत व्यवस्था परिवर्तन की चर्चा चल पड़ी। साथ ही यह बात भी रेखांकित हुई कि भारत में सही मायने में विकास का आधार गौ हो सकती है। फिर जमीन, जल, जंगल, जानवर और जन, इनकी भी बात आगे बढ़ती गई। यह सब करते हुए हमारा मूल चिंतन रहा- ‘समाज आगे सत्ताा पीछे तभी होगा स्वस्थ विकास’, ‘थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली’, ‘हमारा जिला हमारी दुनिया’, ‘हमारा गांव हमारा देश सबको भोजन सबको काम’। जो लोग हमसे जुड़े उनकी भी इन बातों पर समझ बनती गई। जब हमने विदर्भ के किसानों की आत्महत्या के विषय को उठाया, तब उसमें से गांव, गाय और गरीब इन तीनों की युक्ति सामने आई।
2007-08 में बौद्धिक, रचनात्मक और आन्दोलनात्मक कामों की स्वतंत्र सांगठनिक संरचनाएं आकार लेने लगीं और उनमें मेरी जगह पर काम करने के लिए मुझसे भी ज्यादा अच्छे लोग मिलते गए। फिर और आगे गाड़ी बढ़ी तो हम कह सकते हैं कि उस महत्वपूर्ण पड़ाव में नोटा (सभी चुनावी प्रत्याशियों को नकारना) वाला कैम्पेन उपयोगी साबित हुआ। चुनावी सुधार की बात को हम रजिस्टर करवा पाए। राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के माधयम से हमने ग्राम सभाओं को केन्द्रीय बजट का 7 प्रतिशत दिए जाने की बात भी फरजोर तरीके से रखी।
आप प्रायः व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं। उस दिशा में क्या कोई ठोस प्रयास हुए हैं?
गंगा का, गौ का, चुनाव सुधार का और भ्रष्टाचार का, इनमें से हर-एक मुद्दे की यह खासियत है कि यदि कोई इन मुद्दों को हल करने जाएगा तो उसे व्यवस्था परिवर्तन तक जाना पड़ेगा। नीतियों में बहुत बदल करना पड़ेगा। इन चारों मुद्दों के मूल में देशी सोच और विकेन्द्रीकरण का पहलू समाया हुआ है। हम अविरल गंगा निर्मल गंगा की बात करते हैं, लेकिन गंगा अंततः निर्मल और अविरल तभी हो पायेगी जब देश की कृषि नीति, सिंचाई नीति, परिवहन नीति, ऊर्जा नीति, पर्यावरण नीति, ये सब गंगा के अनुकूल बने। तो उसी में से बात आई कि गंगा के प्रवाह में जब तक उसका 70 प्रतिशत जल न रहे तब तक गंगा जी न अविरल रहेंगी और न निर्मल रह पायेंगी। इसी तरह से गौ की बात आई तो गौ माता भी तभी बचेंगी जब सांड़ और बैल रहेंगे, तो मशीनी कृषि और रासायनिक कृषि के रहते गौ माता कैसे बचें। इसके लिए भी परिवहन नीति, ऊर्जा नीति, सिंचाई नीति, कृषि नीति सबमें बदल करनी पड़ेगी। यह सब बिना विकेन्द्रीकरण के सम्भव नहीं। यह समझने की बात है कि गांव के बगैर वैसी कृषि नहीं हो पाएगी जैसी हम चाहते हैं। ग्रीन रिवोल्यूशन ने कई भ्रम फैलाए हैं, जैसे कि बड़ी जोत से ज्यादा उत्पादन होता है छोटी जोत से कम। यह गलत है। भारत विकास संगम के अलग-अलग प्रयासों और प्रयोगों के परिणामस्वरूप अब आग्रहपूर्वक अनुभव से कहा जा सकता है कि बड़ी जोत की तुलना में छोटी जोत का उत्पादन ज्यादा होता है। जैविक/प्राकृतिक कृषि के तरीके अपनाते हुए कम पूंजी कम लागत की बहुफसली खेती ज्यादा लाभप्रद है, ये सब अब स्पष्ट हो चला है।
ऐसा लगता है कि आप शहरीकरण के खिलाफ हैं?
हमारे नीति निर्धारकों को लगता है कि किसानों की बजाए कारपोरेट घराने अच्छी खेती कर सकते हैं। इसलिए वह गांवों से लोगों को विमुख कर शहरों की ओर धकेल रही है। गांवों की कीमत पर शहरीकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। मैं इसके खिलाफ हूं। भारत की संपूर्ण जनसंख्या को शहरों में बसाया नहीं जा सकता। 2050 तक देश में 150 करोड़ लोग होंगे, कुछ भी कर लिया जाये तो उनमें से 75 करोड़ लोग फिर भी गांव में रह जाएंगे। और वो भी तब जब अमेरिका घट रहा है, यूरोप घट रहा है। 150 वर्षों की उनकी अर्थव्यवस्था अब एक चरम पर पहुंच कर रास्ता नहीं खोज पा रही है। अंधी गली के मोड़ पर सब पहुंच गये हैं। ऐसी स्थिति में उनके पिटे-पिटाये असफल रास्तों पर भारत को चलाने की कोशिश भारत के नीति निर्धारकों की वैचारिक गुलामी नहीं तो और क्या है।
विकास को आप कैसे परिभाषित करना चाहेंगे? आपके लिए विकास का क्या पैमाना है?
हमारे लिए विकास मानवकेन्द्रित नहीं, प्रकृतिकेन्द्रित अवधारणा है। जीडीपी ग्रोथ रेट को विकास का पैमाना नहीं माना जा सकता। जमीन, जल, जंगल, जानवर और जन का परस्पर संफष्टीकरण ही हमारे लिए विकास का पैमाना होगा। केवल पैसा विकास का सूत्र नहीं हो सकता। इसमें से हैपीनेस इंडेक्स की बात आई जिसमें पैसे के साथ अन्य कई कारकों को सुख से जोड़ कर देखा गया।
गौ, गंगा, चुनाव सुधार और साथ में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर देश में कई और भी व्यक्ति और संगठन काम कर रहे हैं। आप स्वयं को सबके बीच कैसे आंकते हैं?
आज गौ, गंगा, चुनाव सुधार और भ्रष्टाचार के मुद्दे जन स्वीकृत मुद्दे बन गये हैं। जनस्वीकृत मुद्दे न किसी जात-जमात के हैं, न किसी संगठन या किसी पार्टी विशेष के होते हैं। हमारे लिए आगे बढ़ने का सूत्र है साहस, पहल, प्रयोग। देश की तमाम सज्जन शक्तियों के साथ संवाद, सहमति और सहकार के रास्ते हमें व्यवस्था परिवर्तन की ओर जाना है। हमें समाज की ताकत पर भरोसा है। इस संदर्भ में 2010 के अंत का गुलबर्गा सम्मेलन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। उसके बाद लोगों मेंं और भरोसा बना है, विश्वास बना है। अच्छे लोगों में भी एक-दूसरे को सराहने की अब अच्छी स्थितियां बनी हैं। हम ही नहीं, और लोग भी बहुत कुछ कर रहे हैं, कई लोग तो हमसे भी अच्छा कर रहे हैं, ये दृश्य अब दिखने लगा है।
मैं कह सकता हूं कि मेरी पिछले 10-12 वर्षों की जीवन यात्रा बहुत ही सुसंगत तरीके से आगे बढ़ी है। मैं वो सब कर पा रहा हूं जो मैं करना चाहता हूं। मेरे मन में कोई अकुलाहट नहीं है। बुनियादी कामों में समय लगता है, मैं यह अच्छी तरह जानता हूं। हमने अपना सारा काम लगभग शून्य से ही शुरू किया है। जिन पहलुओं पर काम करना शुरू किया, वो सब नए थे। लेकिन सब काम सही ढंग से चल पड़े हैं, यह संतोष का विषय है। हां मित्रों का वलय, समाज की सदीक्षा, खुद की साख और जीवन के अनुभवों ने रास्ता तलाशने और आगे बढ़ने में मदद की। यही सब पूंजी के नाते काम आई है। जितना कुछ हो पाया है उसका आधार मानवीय संबंध ही रहा है।
देश के सामने चुनौतियां बहुत बड़ी हैं। क्या आपको नहीं लगता कि प्रयासों में और तेजी तथा सघनता की जरूरत है?
हां, मैं मानता हूं। इसमें क्या है कि एक निश्चित आकार लेने तक कठिनाइयां रहती हैं। एक बार क्रिटिकल मास तक स्थितियां पहुंचती हैं तो फिर उन्हें बढ़ाने या तेज करने में उतनी परेशानी नहीं होती है। इसके साथ मैं इस बात पर भी धयान आकृष्ट करना चाहूंगा कि हम ही सब कर रहे हैं या कर सकते हैं, ऐसे अहंकार की भी जरूरत नहीं है। मैं मानता हूं कि सज्जन शक्ति की जो राष्ट्रव्यापी टीम है, हम उसके एक सदस्य हैं। टीम के सदस्य के रूप में हम ही गोल करें, ये जरूरी नहीं है। पास देने से भी अगर एक गोल हो जाये तो भी बढ़िया है, टीम तो जीतेगी।
हम लोगों ने 2006 से भ्रष्टाचार और विदेशों में जमा अवैध धन के बारे में आंदोलन शुरू किया। 2007 में औरों ने भी इस पर बोलना शुरू किया। वही बातें आगे बढ़ते-बढ़ते बाबा रामदेव जी के माधयम से लाखों-करोड़ों लोगों तक चली गईं। उधर अरविन्द केजरीवाल, अन्ना हजारे आदि के माधयम से इस विषय के नए आयाम सामने आए हैं। देश के कोने-कोने में लोगों ने भ्रष्टाचार के प्रतीकों पर हमले शुरू कर दिए जिसमें किसी ने आदर्श घोटाले की पोल खोली तो किसी ने और किसी घोटाले का भंडाफोड़ किया। कुछ लोग इसमें शहीद भी हुए। सब मिलाकर देखेंगे तो इन सबके कारण एक माहौल बना है। अगर ऐसा हुआ है तो ये सुखद बात है। किसी एक व्यक्ति या समूह द्वारा इसका श्रेय लेने की बात नहीं है। इसकी कोई जरूरत नहीं है। वास्तविकता यह है कि शुरूआत होने के बाद बहुत लोगों द्वारा उठाये जाने के कारण भ्रष्टाचार जनस्वीकृत मुद्दा बन गया है।
गंगा महासभा के माध्यम से आपने गंगाजी का जो मुद्दा उठाया, उसके बारे में हमें बताएं।
गंगा महासभा का एक छोटा सा प्रयास अविरल गंगा और निर्मल गंगा के मुद्दे पर शुरू हुआ जिसमें सुदर्शन जी और जगत्गुरु शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी सहित विविध धाराओं के कई लोग एक मंच पर हरिद्वार में एकत्रित हुए थे। गंगा में टिहरी बांध बन जाने के बाद गंगा का विषय लगभग ठंडा हो गया था, लोग भूल से गये थे उस विषय को। गंगा महासभा के गठन के बाद गंगा के विषय को सभी ने उठाया। गंगा रक्षा मंच भी बन गया, गंगा आह्वान भी बन गया, गंगा सेवा अभियान भी बन गया, इस सबको मिला-जुलाकर एक अच्छा प्रभाव हुआ। आज बीसियों संगठन हैं कुछ स्थानिक हैं, कुछ प्रादेशिक हैं, कुछ सार्वदेशिक हैं। संत महात्मा भी अपने-अपने ढंग से इन बातों को कहने लगे हैं कि अब गंगा जी का विषय केवल गंगा महासभा का विषय नहीं है। गंगा के प्रवाह के और उनकी पूरक नदियों के सारे क्षेत्र में अब कहीं भी किसी भी क्षेत्र में जाइये तो लोग मिल जाते हैं जो कहते हैं कि गंगा जी के काम में हमको जो कहिए हम तैयार हैं, जब कभी सत्याग्रह की बात हो, कहिए हम तैयार हैं।
गंगा महासभा की ओर से ‘गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा’ आयोजित की गई थी। गंगा सागर से हरिद्वार तक की इस यात्रा ने सबका धयान खींचा। साधनों का घोर अभाव था। कई जगह पर शाम की आरती होने के लिए भी साधन जुटाने में परेशानियां आईं, कठिनाईयां आईं। लेकिन यात्रा सफलता पूर्वक पूरी हो गई। क्योंकि मुद्दा सही था। उस मुद्दे की अपनी ताकत थी। साथ में मुद्दा उठाने वालों की नीयत सही थी। कोई नेतागिरी चमकाने का विषय ही नहीं था। तो उसका मानक ही ऐसा बन गया कि ‘नेतृत्व गंगा मैया का, सान्निधय संतों का, आह्वान गंगा महासभा का’। इसके नाते खुद को पीछे रखकर बाकी सबको जोड़ लेने की स्थितियां बनती गईं। अभी हाल ही में संत निगमानंद जी के बलिदान ने गंगा के विषय को पूरी दुनिया में पहुंचा दिया है।
गंगा जी के साथ दूसरी नदियों का भी अब प्रश्न उठने लगा है। मुझे याद है कि 15 साल पहले नदियों को जीवंत न मानकर उन्हें केवल संसाधन माना जाता था। एक अविचारित और विचारहीन प्रयोग के नाते कुछ लोग नदियों को जोड़ने का भी ख्वाब देख रहे थे। लोग भूल गए थे कि नदियों की अपनी भी मान्यता है, अपना अस्तित्व है, अपनी जीवन्तता है। इसलिए नदियों में 70 फीसदी पानी वहां का वहां कैसे रहे, नदियों की जमीन ठीक से डीमार्केट होनी चाहिए। अब ये बातें कोर्ट के माधयम से भी सामने आने लगी हैं। तो ये जो प्रकृति की पवित्रता है, अब इसकी गूंज सब जगह होने लगी है। विकास की जो 150-200 वर्ष फरानी घीसी-पिटी सोच है, अब उस सोच पर सवालिया निशान लगने लगा है, जो पहले नहीं हो पाता था। पहले केवल चंद पर्यावरणविद होते थे। अब विज्ञान और आस्था दोनों का ठीक-ठीक संगम हो चला है विकास के संदर्भ में, यह बहुत शुभ घटित हुआ है। वैसे ही गौ माता के बारे में, भ्रष्टाचार के बारे में भी बात आगे बढ़ी है। लोग मानने लगे हैं कि यह एक नैतिक मुद्दा है जिसे राजनैतिक स्तर पर लड़े जाने की जरूरत है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में माहौल बना है। क्या हम मानें कि देश अब भ्रष्टाचार मुक्त हो जाएगा?
भ्रष्टाचार नैतिकता से जुड़ा मुद्दा है। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए मानस परिवर्तन जरूरी है। जब सम्पूर्ण समाज की सोच पैसे और उपभोग से हटकर, कामोन्माद और लाभोन्माद से हटकर जीवन को समग्र रूप से जीने की आकांक्षा से जुड़ेगी, भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार के लक्ष्यों में संतुलन की स्थिति नहीं होगी, तब तक भ्रष्टाचार से लड़ाई पूरी तरह सफल नहीं होगी। इस विषय में छोटे-छोटे कदम, चाहे वे लोकपाल के रूप में हों या विदेशों में जमा अवैध धन को वापस लाने के प्रयासों के रूप में हों, या फिर इसमें कसूरवार लोगों को कठोर दंड देने की बात हो, ये तीनों आयाम भ्रष्टाचार समाप्ति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में छोटे लेकिन महत्वपूर्ण उपक्रम साबित होंगे। ये सब मांगें सही हैं। इनकी अपनी ताकत के आधार पर अब जागृति होने लगी है। यह एक सुखद पहलू है।
आंदोलनात्मक मुद्दे पर काम कर रहे व्यक्तियों और संगठनों के बीच तालमेल बढ़ाने की क्या आपकी ओर से कोई कोशिश हुई है?
जैसे भारत विकास संगम ने रचनात्मक कार्य करने वालों को जुटाया है, वैसे ही राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन ने आन्दोलनात्मक समूहों को इकट्ठा करने की कोशिश की है। उसी दिशा में एक प्रयास राजनैतिक समूहों को इकट्ठा करने के रूप में भी हुआ है। 25 जून को लोकतंत्र बचाओ मोर्चा भी बनाया गया है। अब जरूरत है कि उसका एक पोलिटिकल और इकोनामिक एजेंडा बने तथा उस पर सबके बीच सहमति बने। लोग वैचारिक छुआ-छूत से कैसे मुक्त हों, एकजुट होकर सबका संघर्ष का मोर्चा कैसे बने, इस दिशा में भी प्रयास चल रहा है। प्रारम्भ में तो स्वाभाविक है कि जो समान विचार समान धर्मा लोग हैं, उनको एकजुट करने में थोड़ी सहूलियत है। उससे आगे बढ़ते हैं तो सहमना लोगों को जोड़ रहे हैं। उससे आगे बढ़ रहे हैं तो समभाव के लोगों को जोड़ रहे हैं। उसके बाद जब हम आगे बढ़ रहे हैं तो वे लोग मिलते हैं जो हमें समाज के लिए नुकसानदेह मानते हैं। ऐसे लोगों से भी मुद्दे के आधार पर थोड़ा संवाद हो और थोड़ी समझ बने, इसके लिए हम ही लोग पहल कर रहे हैं। हमारा कहना है कि ठीक है भाई, आप हमारे बारे में ऐसा सोचते हैं तो ठीक है, मगर मुद्दों के बारे में तो मिलकर काम करें। कुछ लोग कहते हैं कि आप दूरी बना कर रखिए और मुद्दों पर समर्थन करिए। मैं ऐसा ही करता हूं। पिछले दिनों अण्णा हजारे के लोगों से हमारी बात हुई थी तो उनका यह कहना है कि आपके और हमारे समर्थक अलग- अलग हैं। यदि हम एक साथ मंच पर दिखे तो दोनों के समर्थक घट जाएंगे। अपने-अपने समर्थकों के साथ हमें दूरी बनाकर चलना चाहिए। मैंने कहा ठीक है!
सामने वाले की नीयत पर शक न करना और मुद्दे की ताकत पर भरोसा रखना हमारा सिद्धांत है। ‘संवाद सहमति सहकार’ की कार्यशैली के तहत हम अपनी नीयत की ईमानदारी के साथ बातचीत करते हैं। जहां तक सहमति बने सहमति की ओर जाते हैं। सहमति के बाद जहां तक सहकार की स्थिति बने, सहकार करने का प्रयास करते हैं। दूसरे सहकार कर रहे हैं या नहीं कर रहे हैं, हम इसकी परवाह नहीं करते। दूसरे ही नेतृत्व हथिया लें तो हथिया लें। हम लोगों को इसका गिला-शिकवा नहीं होता। सबको जोड़ने के लिए खुद छोटे हो जाएं तो क्या हर्ज है और सबके दरवाजे पर हम ही को जाना पड़े तो हम तत्पर रहेंगे। मेरे लिए सबसे बड़ी चीज है उद्देश्य की एकता।
बाबा रामदेव के साथ तालमेल की क्या स्थिति है?
बाबा रामदेव जी ने अपनी इच्छानुसार जितना संवाद रखना चाहा, हमने संवाद रखा। क्योंकि मुद्दों के बारे में मैं मानता हूं कि वो भी आगे बढ़े हैं और स्वाभाविक तौर पर उनकी व्यापकता और स्वीकृति ज्यादा थी। स्वाभाविक था कि हम उनका सहयोग करते। मोटे तौर पर जनवरी महीने से लेकर अप्रैल महीने तक उन्होंने अधिक से अधिक निकट रहकर सहयोग करने को कहा। उसी आधार पर 27 फरवरी को मैं उनकी रैली में था। मार्च में नागफर और गोवा की रैली में भी उनके साथ था। 5 से 12 अप्रैल तक हरिद्वार में उनके चिंतन सत्र के संचालन में भी सहयोग करता रहा। बाद में उन्हें ऐसा लगा कि सरकार से वार्ता सिरे चढ़ने वाली है, ऐसे में कहीं मेरे कारण राजनैतिक या ‘साम्प्रदायिक’ पहलू अनावश्यक अड़चन न बने। जब रामदेव जी को ऐसा लगा तो मैंने दूर से या पीछे से समर्थन करना उचित समझा। मुझे आपत्तिा किसी बात की क्यों होती। हमने कहा मुद्दा हल होना चाहिए। अगर हमारे नजदीक रहने से मुद्दा हल होता है तो वो अच्छा और अगर हमारे दूर रहने से मुद्दा हल होता है तो वो और भी अच्छा। फलतः अप्रैल के बाद और 2 जून तक उनकी मुझसे संवाद की न आवश्यकता थी और न ही उपयोगिता थी। और 4 जून का विषय तो पूरे देश का ऐसा विषय है जिसकी जितनी निंदा की जाए, कम है। क्या लोकतांत्रिक तरीके से काम करने वालों के साथ मदांध सरकार ऐसे ही बर्बर व्यवहार करेगी।
जून महीने के अंत में मैं फिर उनसे मिला। हम जो कर रहे हैं उनको बताया। बातचीत में यह ध्यान आया कि अभी बाबा रामदेव जी की आगे की कार्ययोजना स्पष्ट होनी है। लेकिन 4 जून को भ्रष्टाचार का आंदोलन जहां छूटा हुआ था, हमने उसको वहीं से आगे बढ़ाया। शांत आंदोलनकारियों पर सरकार द्वारा किये गये अत्याचार के खिलाफ 18 जून को हमने मौन जुलूस निकाला और गिरफ्तारी दी। बाकि राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के माध्यम से इन विषयों पर हम यथावत सक्रिय हैं। अण्णा हजारे के इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लोग हों या भारत स्वाभिमान के बाबा रामदेवजी के लोग हों उनसे हम सार्थक संवाद की स्थिति में हैं। संवाद, सहमति और सहकार के रास्ते पर हम तो चलेंगे और इसमें जितना वो सहयोग चाहें हम अपनी शक्ति भर उनको सहयोग भी करेंगे। यहां मैं कहना चाहूंगा कि हम संयुक्त आन्दोलन के पक्षपाती हैं, किसी एक बैनर तले आन्दोलन के नहीं। हम चाहते हैं कि सबको मिलाकर एक संघर्ष समिति बने। इससे आन्दोलन को ज्यादा ताकत मिलेगी। सब एक के अधीन हों या सर्वोपरिता को ही स्वीकार करें, यह जरूरी नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में साझा मंच, साझा नेतृत्व, साझा कार्यक्रम ही आन्दोलन की ताकत को बढ़ाएंगे, ऐसा मेरा अनुभव है।
चाहे अण्णा हों या बाबा रामदेव, दोनों व्यवस्था को तो दोष देते हैं, लेकिन व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे लोगों के बारे में कुछ नहीं बोलते हैं। उन पर सीधे आरोप लगाने से बचते हैं। तो बिना शीर्ष पर बैठे लोगों पर आरोप लगाये या उनसे लोहा लिए, वे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई कैसे लड़ सकते हैं?
लोग इसको रणनीतिक बुद्धिमत्ता कह सकते हैं। लेकिन मैं इसे साहस का अभाव भर मानता हूं। और मैं ऐसा मानता हूं कि भ्रष्टाचार की चर्चा भ्रष्ट लोगों की चर्चा के बगैर कैसे संभव है। हमेशा ही भ्रष्टाचार के खिलाफ की लड़ाई तो सत्ता शीर्ष से ही हो सकती है। सत्ता शीर्ष पर अगर लोग भ्रष्ट हैं तो उनके खिलाफ बोलना ही पड़ेगा। भ्रष्टाचारियों के बारे में चुप्पी साधना भ्रष्टाचार में हाथ बंटाना ही हुआ। इसलिए सत्ताधीशों के खिलाफ मुखर और सक्रिय विरोध के बगैर ये लड़ाई सिरे नहीं चढ़ सकती।
क्या आपको लगता है कि 4 जून की घटना के बाद कोई मुखर विरोध करने का साहस कर पाएगा?
मेरा ख्याल है कि जनता तो मुखर विरोध के लिए तैयार है। ये तो नेतृत्व को तय करना है कि वो बचकर चलना चाहते हैं या मुठभेड़ करना चाहते हैं।
मैं हमेशा मानता हूं कि नेतृत्व तो हमेशा आगे से होता है। और स्वयं सक्रिय होना पड़ता है। जैसे मुझे अच्छा लगा जब अरविन्द केजरीवाल आदि ने लोकपाल के मुद्दे पर सीधे जनता के बीच जाने का फैसला किया। यह सुखद है, यह सही बात है। लोकतांत्रिक तरीके से ही क्यों न हो, जनसामान्य को समझाने के लिए उनके बीच जाना आवश्यक है। और इसमें स्वाभाविक है कि सत्ता पक्ष की ओर से विरोध होगा, प्रताड़ना होगी। उसको सहने का साहस और ताकत दिखानी ही पड़ेगी। ऐसे ही सबको करना पड़ेगा। सत्याग्रह की ताकत का स्वाभाविक अंश है कष्ट, सहिष्णुता और निर्भीकता।
जनता में जाने की जहां तक बात है तो राहुल गांधी भी तो जनता में जा रहे हैं, उनका स्वागत भी बहुत हो रहा है?
हां, सही है। लेकिन उनका जाना स्वयं में अस्पष्ट है। राहुल गांधी जैसे उत्तार प्रदेश के भट्टा परसौल आदि गांवों में गये, उसी प्रकार उन्हें बगल में हरियाणा में भी जाना चाहिए। उनको राजस्थान में भी जाना चाहिए। समस्याएं केवल उत्तार प्रदेश में हों, राजस्थान में न हों ऐसा तो है नहीं। अगर मुद्दे के बारे में वो ईमानदार हैं तो किस पार्टी का शासन कहां है इसकी ओर ध्यान न देते हुए उन्हें सब जगह जाना चाहिए। ये उनकी ईमानदारी का तकाजा है। ये उन्होंने नहीं किया है। ये नहीं करने से उनकी साख और नीयत दोनों पर सवाल उठ जाते हैं।
बाबा रामदेव के खिलाफ सरकार ने रामलीला मैदान में जो दमनात्मक कार्रवाई की और आज भी उनको परेशान किए हुए है, उसे आप कैसे देखते हैं?
ये हमेशा ही होता है। आखिर सत्ता मदांध होती है तो वो अपने को ही सर्वेसर्वा समझने लगती है। यहीं से उसका पतन भी शुरू होता है। संवाद की जगह पर वो संघर्ष का निमंत्रण देती है। निरंकुश सरकार जनसमूहों को चुनाव की चुनौती देती है। हमको याद है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी चुनाव की चुनौती दी थी, जैसे आज कपिल सिब्बल जी और अन्य लोग बोलते हैं कि आप तो चुने हुए लोग ही नहीं हैं। तो आन्दोलनकारी नेतृत्व को कहना चाहिए कि ठीक है हम उस चुनौती का जवाब चुनाव में भी देंगे। उससे पीछे क्यों हटना चाहिए। चुनौती स्वीकार कर लेनी चाहिए। लोकतंत्र में अगर वो चुनाव के अखाड़े में जाते हैं तो जनता चुनाव के अखाड़े में उनका उत्तार देने में समर्थ है। फिर उनकी तरफ सत्ता है, हमारी तरफ जनता है। और लोकतंत्र में सत्ता कम जनता ज्यादा निर्णायक होती है। हमने 1974 से 77 तक का दौर भी देखा है, आपातकाल का समय देखा है। बोफोर्स के समय को भी देखा है। मतांध सत्ताधारियों को लगता है कि बस उन्हीं को गढ़ा गया है देश को संभालने के लिए। लेकिन सच्चाई ये होती नहीं है। और जो मदांध हो जाते हैं उनका सही और गलत का विवेक समाप्त हो जाता है। वे संवाद की जगह पर डंडे का प्रयोग करना चाहते हैं। लेकिन भूल जाते हैं कि मुद्दा अगर सही रहा तो उत्पीड़न से आन्दोलन ज्यादा मजबूत होता है। इसलिए आन्दोलनकारियों की जिम्मेदारी होती है कि वो आन्दोलन को शांतिपूर्ण बनाए रखें और जनता के बीच अपनी बात उत्तारोतर फैलाते चलें। जनसहभाग ही सत्ता बल के उत्पीड़न का उत्तार हो जाता है। और जनसहभाग की कोई काट नहीं होती है, कितनी ही बंदूकें हों, कितनी भी लाठियां हों। इसलिए उससे डरने की जरूरत नहीं है। हां, कीमत देने की जरूरत है। सस्ते में तो कोई चीज मिलती नहीं है, मिलनी भी नहीं चाहिए। आवश्यक कीमत जब अदा करने की तैयारी रहती है, जो आन्दोलनों की होती है, तो आन्दोलन सफल होते हैं। ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ का चापलूसी भरा नारा कांग्रेस अधयक्ष देवकांत बरुआ ने जेपी आंदोलन के जवाब के बतौर उछाला था। लेकिन वही इंदिरा जी और उनके बेटे संजय गांधी दोनों चुनाव हार गए थे। उसमें कहां पैसे की कोई भूमिका थी। आज कहा जाता है कि पैसे का बहुत चलन है, चुनाव कैसे जीतेंगे? ऐसा नहीं होता। केवल पैसे की बात होती तो आज अरबपति लोग राजनीतिक दल गठित करके राज कर रहे होते। बिड़ला जी भी एक समय चुनाव लड़ना चाहते थे। कहां चुनाव लड़ पाए? वो तो लखनऊ से भाग आए थे। तो जन जागरण और जन का दबाव यह सबसे बड़ा शस्त्र होता है सत्याग्रहियों का। आत्मबल और जनबल से सुसज्जित सत्याग्रही अजेय होता है।
आपने जेपी मूवमेंट में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आंदोलन की सफलता में उस समय छात्रों का बहुत बड़ा योगदान था। लेकिन वर्तमान में अगर देखें तो छात्र इकाई या छात्र संगठन उस रूप में आगे नहीं आ रहे हैं।
हां, उसका कारण यह है कि धीरे-धीरे छात्र संगठनों को अलोकतंत्रीकरण कर दिया गया। उन्हें खत्म कर दिया गया। छात्र संघों के चुनाव भी बंद कर दिए गए। राजनैतिक दलों की कार्यशैली बदल गई। वे कार्पोरेटोक्रेसी के शिकार हो गये। जनता की बजाय वो सत्ता से जुड़ने लगे। फलतः कार्यकर्ता की जगह कर्मचारियों को अहमियत मिलने लगी। लीडर की जगह डीलर मजबूत बन गये। फलतः राजनैतिक दलों का स्वरूप तो व्यापक और बड़ा बन गया, मगर अंदर से वे खोखले हो गये। जब राजनीतिक दल उद्देश्यहीन सत्ता प्राप्ति में उलझी जमातों की शक्ल पा गये तो उनके छात्र संगठन भी उसी शक्ल में ढलते गये। उनके अंदर भी राजनीति के माधयम से सिर्फ आर्थिक हैसियत बढ़ाने, सामाजिक रूतबा बढ़ाने और किसी के आभामंडल में रहकर प्रकाशित होने की इच्छा शेष रह गई। इधर कार्पोरेटोक्रेसी में एक अतिरिक्त तत्व जुड़ गया है, वो है वंशवाद का। इसलिए नेता का बेटा नेता, कार्यकर्ता का बेटा कार्यकर्ता, वोटर का बेटा वोटर बनकर रह गया है। ऐसे में खेल के सारे ही नियमों को बदलने की जरूरत है। ये नियम आंदोलनों की गर्मी से बदलते हैं। आज भी छात्र-नौजवान बदल के पक्षधर हैं। जैसे अभी देखिए न, ‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’ के नाम से किसी ने इंटरनेट पर जैसे ही आह्वान किया, उसको तीन हजार सब्सक्राइबर मिल गये, नौजवान, अचानक। इसका अर्थ है कि नौजवान आंदोलनों से जुड़ना चाहता है। उस तक पहुंचने की विधा में और परिष्कार की जरूरत है। मौजूदा आंदोलन या संगठनों से यदि युवा नहीं जुड़ रहे हैं तो यह उन आंदोलनों या संगठनों की कमी है, युवाओं की नहीं। मैं ऐसा मानता हूं कि स्थितियां परिपक्व हैं। जनसमर्थन भी है। जगह-जगह पर साखयुक्त ताजा नेतृत्व भी नौजवानों का है। बस सबको एक साथ संजोने की संगठनात्मक कड़ी का अभाव है। जरूरत है एक न्यूनतम संगठनात्मक ढांचे की जिसके द्वारा आन्दोलन का संदेश ठीक-ठीक नीचे तक और आम आदमी तक पहुंचाया जा सके। इस दिशा में अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। और बिना उतना किए आन्दोलन के परिणाम भी नहीं आएंगे। कई बार हम जल्दी फल चाहते हैं और परिश्रम कम करना चाहते हैं। तो कम निवेश करें और ज्यादा परिणाम आवे यह भी अच्छी बात नहीं होती।
भ्रष्टाचार विरोधी माहौल से जो वातावरण बना है, उसका क्या राजनीतिक प्रतिफलन हो सकता है? उसकी कोई आवश्यकता है भी या नहीं?
देश के मौजूदा राजनैतिक नेतृत्व में से सारे सड़े-गले तत्वों को हटाकर, उसे फिर से प्रवाहमान बनाने की जरूरत है। इसके लिए नये मापदंड और नये प्रयोग करने होंगे। और मैं ऐसा देख रहा हूं कि देश में जिले-जिले में नए-नए लोग उतर रहे हैं। प्रयोग भी कर रहे हैं। उन सारे लोगों को जोड़ना और उन्हें मुद्दो और मूल्यों के संदर्भ में बांधना और उसके लिए पोलिटिकल इकोनॉमिक एजेंडा बनना चाहिए। कम-से-कम उस एजेंडे पर सबकी सहमति होनी चाहिए। अपने-अपने जगह की विशेषताओं को आत्मसात करते हुए जो नेतृत्व उभरेगा वो निश्चित रूप से देशी सोच और विकेन्द्रीकरण का पक्षधर होगा। मैं ऐसा मानता हूं कि आजादी के बाद से इतने वर्षों में भारत का नौजवान अपने राष्ट्र की पहचान को लेकर संशयग्रस्त नहीं है। इसलिए विविधताओं का संरक्षण राष्ट्रीय एकता को बाधित नहीं करेगा, ये मेरा विश्वास है। देश की ताकत को जीवंत करने और उसका संधान करने में विकेन्द्रीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। भारत की युवा पीढ़ी पर हमको भरोसा होना चाहिए। भारत की जड़ें बड़ी गहरी हैं। उससे आज का नौजवान अलग नहीं है।
लेकिन आज की युवा पीढ़ी राजनीति में आने की बजाए अपना कैरियर संवारने पर ज्यादा ध्यान देती है।
ऐसा नहीं है, मैं तो नीचे जिले-जिले में अच्छे-अच्छे लोगों को देख रहा हूं, जो आगे आना चाहते हैं। बस उनको थोड़ा-बहुत प्रोत्साहन, थोड़ा-बहुत संरक्षण और थोड़ा बहुत साथ देने की आवश्यकता है। नौजवानों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि इस सारे मकड़जाल में वे कैसे करें और क्या करें। वे अपने को अलग-थलग और अकेला महसूस करते हैं। ज्यों-ज्यों उनको मंच मिलते जाएंगे त्यों-त्यों वे अपने को अधिक कांफिडेंस के साथ डील करता हुआ पाएंगे। हां, नौजवानों की एक दूसरी भी जमात है, जो स्थापित राजनेताओं की चमचागिरी करके आगे बढ़ना चाहती है। लेकिन उनकी क्षमता इतनी ही है कि वे बेल की तरह से पेड़ के इर्द-गिर्द होकर जीवित रहें। उनकी योगदान करने की क्षमता बहुत कम है। लेकिन मैं दूसरी तरफ देख रहा हूं जहां योगदान करने की अपार क्षमता वाले युवा अपने जमीर के साथ चल रहे हैं। ऐसे बहुत लोग हमको मिल रहे हैं। मैं उन्हें एक बड़ी ताकत के रूप में खड़ा होते देख रहा हूं।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन या भारत विकास संगम ने कुछ इस दिशा में सोचा है कि युवा को आगे कैसे लाया जाए?
स्वाभाविक है कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन इस दिशा में इन सब बुनियादी बातों के बारे में सोच रहा है। दूसरी ओर लोकतंत्र बचाओ मोर्चा के नाते से जो प्रयास अभी शुरू हुआ है, उसमें भी इन बातों पर आग्रह है। इसी सोच के साथ एक ‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’ की पहल हुई है। इन सभी प्रयासों को दूर तक फैलाने की योजना बन रही है। और ऐसे भी सब तरफ से जो-जो नये प्रयास चल रहे हैं उनके प्रति स्वागतशील मानस रखते हुए साथ चलने की बात सभी के मन में है।
लोकतंत्र बचाओ मोर्चा के बारे में, उसके स्वरूप और उसकी योजना के बारे में जरा विस्तार से बताएं।
यह राजनैतिक प्रयोग का एक और प्लेटफार्म है। हम देख रहे हैं कि अब तो लोकतंत्र पर ही संकट है। लोकतांत्रिक तरीके से चलने वाले आन्दोलनों का दमन होना आम बात हो गई है। आज स्थिति ऐसी हो गई है कि जो सूचना के अधिकार का प्रयोग कर रहे हैं, उनको मौत का सामना करना पड़ रहा है। इन सब बातों को धयान में रखते हुए लोकतांत्रिक ढांचे और लोकतांत्रिक संस्थाओं के संरक्षण-संपोषण को मुख्य मुद्दा बनाते हुए लोकतंत्र बचाओ मोर्चा अर्थात ‘सेव डेमोक्रेसी फ्रट’ का गठन हुआ है। इसमें कई छोटे-बड़े राजनैतिक दल और व्यक्ति शामिल हुए हैं और कई लोग शामिल होने वाले हैं। इस मोर्चे का एक साझा एजेंडा बनाने की कोशिश चल रही है। अक्टूबर तक इसको बेहतर स्वरूप प्राप्त हो जाये, इसका मैं प्रयास कर रहा हूं। इसमें अधिकांश लोग वे हैं जो चुनावी राजनीति में हिस्सा लेना चाहते हैं। इसकी पद्धति क्या होगी, क्या स्वरूप बनेगा, यह सब अभी देखा जाना है।
लगता है भारतीय समाज एक असंगठित समाज है। हम आसानी से किसी बात पर सहमत क्यों नहीं हो पाते हैं?
यह गलत धारणा है कि भारतीय समाज असंगठित है। सच यह है कि हमारा समाज विविधतापूर्ण है। यही उसकी ताकत है, अगर उसमें एकता के सूत्र बनाए रखे जा सकें। यही उसकी कमजोरी बन जाती है जब विविधता को विभेदकारी बना दिया जाता है। तो भारतीय समाज का हजारों-हजारों वर्षों से उसी जीवन प्रवाह के रस से सिंचित होकर चलते रहना और कई तरह के उथल-फथल तथा सत्ताा हस्तांतरण आदि से अप्रभावित रहकर फरातन मूल्यों और आदर्शों पर टिके रहना कोई साधारण बात नहीं है। बहुत अधिक संगठित रहने पर ऐसा नहीं हो पाता। यूनान और रोम का समाज बहुत संगठित था, उसकी क्या गति हुई, अच्छी तरह जानते हैं। आज हम जिस लोकतांत्रिक ढांचे को अपनाए हुए हैं, वह वेस्टमिंस्टर मॉडल की नकल है, जिसे हमने हड़बड़ी में अपनाया है। इस व्यवस्था के कुछ हद तक सफल होने के लिए कुछ पूर्व शर्तें थीं, कुछ तकाजे थे, जिसे हमने पूरा नहीं किया। जब हमने राजनैतिक दलों के ढांचे के आधार पर लोकतांत्रिक पद्धति को स्वीकार किया, तब राजनैतिक दलों के संचालन के लिए जो आचरण संहिता बन जानी चाहिए थी, वो हम नहीं बना पाए। उसमें हम पीछे रह गये। जैसे आप देखिए कि दल-बदल की समस्या आई 67 में और इसके लिए कानून बना 30 साल बाद और उसमें भी खामियां रह गईं। आज राजनीतिक दलों में सांगठनिक नौकरशाही हावी है। लोकतांत्रिक भावना खत्म हो गई है। मैं ऐसा मानता हूं कि राजनैतिक दलों की स्वस्थ कार्यशैली के संबंध में चुनाव आयोग को जिन अधिकारों की जरूरत थी, वे नहीं दिए गए। जब हमें व्यवस्थागत कमियों की समझ हुई, तब तक निहित स्वार्थ पनप चुके थे, जो किसी भी सुधार की राह में रोड़ा अटकाने के लिए तैयार बैठे हैं। इसलिए वही दोषयुक्त व्यवस्था चलती जा रही है और राजनैतिक सुधार के सारे प्रयास किल हो रहे हैं। अब बदलाव अंदर से नहीं बाहर से होगा। जनआंदोलन और जनदबाव को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
क्या सभी राजनीतिक दलों की संचालन पद्धति विकृत हो चुकी है? क्या कोई अपवाद भी है?
इसमें कुछ हद तक आप कम्युनिस्ट पार्टियों को अपवाद मान सकते हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों ने पार्टी संगठन और सत्ता से संबंध के बारे में सदस्यों के आचरण से जुड़े कुछ विधिनिषेधों का सृजन किया। उसमें कितना सही कितना गलत, इस पर बहस हो सकती है मगर आज भी हम मान सकते हैं कि वामपंथी दलों के जनप्रतिनिधियों की सामाजिक जवाबदेही ज्यादा है। स्वयं के जीवन के साधन विवेक के बारे में भी उन्होंने अन्य दलों की तुलना में अधिक अनुशासन दिखाया है। स्वयं को अनुशासित रखने की आवश्यक नियमावली और उस पर पर्याप्त आग्रह न होने के कारण अन्य दल धीरे-धीरे जाति, क्षेत्र, भाषा, सम्प्रदाय आदि तत्वों के शिकार हो गये और अब लगभग सभी में वंशवाद के लक्षण भी साफ देखे जा सकते हैं। आज तो पारिवारिक पार्टियों का बोलबाला है।
राजनीतिक सुधार की थोड़ी शुरूआत जयप्रकाश नारायण ने की थी। उन्होंने पार्टीविहीन लोकतंत्र और ‘राइट टु रिकाल’ अर्थात जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की बात कही। उनके असमय निधन से ये बातें दब गईं। किसी ने उनको आगे नहीं बढ़ाया। इसमें राजनैतिक दल अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रहे हैं। अपनी पार्टी में लोकतंत्र कैसे संरक्षित-संपोषित रहे, राजनैतिक दलों ने इसकी चिंता नहीं की। इसलिए राजनैतिक दल देश में लोकतांत्रिक क्षरण के अपराधी हैं। आप देख सकते हैं कि देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष एक हो गया है। वेस्टमिंस्टर मॉडल में अगर सत्ताा पक्ष और विपक्ष नीतियों के संदर्भ में एक हो जाएं तो उनके अलग दल के रूप में बने रहने की कोई जरूरत ही नहीं है। असल में तो कांग्रेस और भाजपा को एक हो जाना चाहिए, क्योंकि नीतियों के स्तर पर उनमें कोई भेद ही नहीं है। भाजपा जैसी पार्टियां जब विपक्ष का स्थान घेर कर रखेंगी तो इसका परिणाम यह होगा कि गरीबों के हक और हित की आवाज संसद में उठेगी ही नहीं। वो तो सड़कों पर ही उठा करेगी। ऐसा होने पर देश तो अराजकता की लपट में झुलसेगा ही। चुनाव आयोग की भूमिका चुनाव करवाने के आगे भी होनी चाहिए। राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्रों और उनकी नीतियों आदि के बारे में निगरानी की कोई व्यवस्था न तो चुनाव आयोग की है और न ही किसी और की। मैं तो कहता हूं कि आज सत्ता में आने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि भारत में लोकतांत्रिक दृष्टि से सही विपक्ष कैसे उभरे। आज तो यह छद्म विपक्ष है। सत्ता पक्ष और छद्म सत्ता पक्ष ये इनकी स्थिति है। चाहे जमीन अधिग्रहण का विषय है या भ्रष्टाचार का विषय हो, तथाकथित विपक्ष के लोग रस्म अदायगी में लगे रहते हैं। और कौन से भ्रष्टाचार की बात ये विपक्षी करेंगे, जिनके भ्रष्टाचार अभियान के संयोजक खुद भ्रष्टाचार में लिपटे हुए हों, जिनकी जांच चल रही हो। जो लोग अपनी-अपनी पार्टियों की सरकारों में भ्रष्टाचार की रोकथाम की बजाय दूर जाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगाते हुए दिखते हैं, जनता उनकी हकीकत समझती है। जनता इतनी बेवकूफ थोड़ी न है।
कांग्रेस आपको संघ के प्रतिनिधि के रूप में प्रचारित करती है, इसमें कितनी सच्चाई है? यह उनका नजरिया है जो राजनीति से प्रेरित है और बहुत पुराना है। संघ क्या वास्तव में ऐसा संगठन है जिससे डरने या सावधान रहने की जरूरत है?
दुर्भाग्य से संघ का यथार्थ और संघ की छवि दोनों अलग हैं, दोनों में बहुत बेमेलपन रहा है। संघ लोकतांत्रिक तरीके से काम करता है, खुले मैदान में काम करता है, छवि है गुप्त अर्धसैनिक संगठन की। संघ सेवा कार्यों में हजारों-हजार सेवा केन्द्र चला रहा है और संघ की छवि केवल है लाठी लेकर रूट मार्च करने वालों की। संघ एक समावेशी हिन्दुत्व का पक्षपाती है और संघ की छवि है प्रतिक्रियावादी मुस्लिम विरोधी संगठन की। ये तो संघ के लोगों को भी चिंता करनी पड़ेगी कि छवि और यथार्थ का ठीक मेल कैसे बने। अपनी-अपनी प्रसिद्धि से बचकर काम करने की जो आदत संघ में डाली जाती है, उसका भी एक खास प्रभाव होता है। फिर सेवा कार्यों के माधयम से सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन की छवि बनाने के लिए जो आवश्यक उपादान संघ को ढूंढने चाहिए थे, उसमें भी कहीं कमी रह गई। इसके चलते संघ का हौवा दिखाकर सत्तारूढ़ दल स्वयं को प्रासंगिक और जरूरी बताने की कोशिश करता है। लेकिन मैं बताना चाहूंगा कि कांग्रेस के लोग संघ से नावाकिफ नहीं हैं। जैसे हमारे दिग्विजय सिंह जी अभी-अभी हाल में खूब बोल गये। लेकिन दिग्विजय सिंह जी के घर राजगढ़ में संघ के प्रचारक स्वर्गीय प्यारेलाल जी खंडेलवाल का खूब आना-जाना रहता था। दिग्विजय सिंह जी के पिताजी और घर के सारे लोग और यहां तक कि दिग्विजय सिंह जी भी संघ के काम से परिचित हैं। दिग्विजय जी के घर-परिवार के लोग संघ के अलग-अलग कामों में भी लगे रहते हैं। यह अलग बात है कि संघ को उल्टा-सीधा कहना उन्हें राजनीतिक दृष्टि से उपयोगी लगता है, सो वे कहते हैं। अभी आसाम का आप देखिए, वहां श्री तरुण गोगोई के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी जीती है तो वहां उनको संघ के स्वयंसेवकों का भरपूर समर्थन मिला है। इन्हीं सब बातों के कारण अभी कांग्रेस के प्रवक्ता श्री मनीष तिवारी ने दिग्विजय सिंह के इस बयान से कि, संघ बम फैक्ट्री चलाता है, पार्टी को अलग किया है।
लेकिन जो मनीष तिवारी ने किया है वह तो बेइमानी है। कांग्रेस एक ओर दिग्विजय को अनाप-शनाप बोलने के लिए कहती है, दूसरी ओर स्वयं को उससे दूर कर लेती है। अगर दिग्विजय कांग्रेस पार्टी की लाइन के खिलाफ लगातार बोले जा रहे हैं, तो पार्टी उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं करती?
कांग्रेस की कार्यशैली में दोहरापन तो जीन्स में चला गया है। इसलिए अब उस आधार पर हम उसको तौलते भी नहीं हैं। वो तो वैसे ही रहेंगे। देश को उस दोहरेपन के कारण बहुत नुकसान हुआ है, ये भी सत्य है। लेकिन देश कांग्रेस पार्टी के बावजूद चल रहा है, उसके कारण नहीं चल रहा है।
मनमोहन सिंह के बारे में कहा जाता है कि व्यक्तिगत रूप से वे बहुत ईमानदार हैं। आपका क्या कहना है?
देखिए गोविन्दाचार्य आज एक समाज का जागरूक नागरिक है तो व्यक्तिगत ईमानदारी उसके लिए पर्याप्त हो सकती है। लेकिन जो देश के सत्ता संचालन की अहम भूमिका और अधिकार के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं, उनके लिए व्यक्तिगत ईमानदारी तो आवश्यक है ही मगर पर्याप्त नहीं। उनके द्वारा संचालित कैबिनेट और उनके मंत्रियों पर यदि भ्रष्टाचार के इतने इल्जाम लगे हों और उनको सारी बातों की जानकारी रही हो और उस पर भी उन्होंने कोई कदम न उठाए हों, तब उनको ईमानदार कैसे कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री के लिए ईमानदारी की कसौटी यह नहीं होगी कि उन्होंने खुद घूस लिया या नहीं। उनके लिए तो ईमानदारी की कसौटी यह होगी कि सम्पूर्ण व्यवस्था को भ्रष्टाचारमुक्त करने के लिए उन्होंने कितने साहसपूर्ण कदम उठाए, कितने लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया, कितने लोगों को दंडित करवाया। वे आदरयोग्य तब होंगे जब भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए उन्होंने प्रभावी और परिणामकारी कदम उठाकर दिखाया हो। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी गंभीर रूप से असफल रहे हैं।
प्रधानमंत्री बीच-बीच में कहते हैं कि इन सभी के लिए पूर्ण रूप से मैं ही जिम्मेदार नहीं हूं। वो इशारा कहीं और करते हैं?
यह कहकर वे बच नहीं सकते। यदि वे स्थितियों पर काबू नहीं पा सकते तो ईमानदारी का तकाजा है कि वे अपना पद छोड़ दें। पद पर टिके रहना उनकी कोई मजबूरी तो है नहीं, कहीं पट्टा लिखा के या किसी का कर्ज खाकर तो आये नहीं हैं, जो उनको सधाना ही पड़ेगा, बंधुआ मजदूरी करनी ही पड़ेगी। पद छोड़ने के बाद ज्यादा खुले तौर पर वे अपनी बात कह सकेंगे और उसका वजन भी ज्यादा होगा। देश को ऐसे सक्रिय ईमानदार लोगों की जरूरत है। भ्रष्टाचार में परोक्ष सहभागी ईमानदारों की देश को कोई जरूरत नहीं है।
मनमोहन सिंह भारत में नवपूंजीवाद के पुरोधा माने जाते हैं। विदेशी पूंजी को भारत में लाने की वे जोरदार वकालत करते हैं। क्या वास्तव में भारत को विदेशी पूंजी की जरूरत है?
आपको पहले भारत में पूंजी निर्माण की प्रक्रिया समझनी पड़ेगी। हमारे देश में 70 प्रतिशत पूंजी घरेलू बचत के कारण पैदा होती है। कारपोरेट सेविंग या गवर्नमेंट सेविंग तो होती ही नहीं है। ये भी जान लीजिए कि जो बाहरी पूंजी आई है वो किस काम में लगी है। आप पाएंगे कि वो तो कैपिटल इंटेंसिव कामों में लगी है। इसलिए नीचे तक तो वो पूंजी गई ही नहीं है। इसलिए भारत में ऊपर से पूंजी रिसाव बहुत कम हुआ है। उल्टे विदेशी पूंजी तो भारत के कमजोर वर्ग के प्राकृतिक संसाधनों को दुहने के काम आ रही है, हैसियतम