संघ कार्यकर्ताओ की धर्मपत्नियो को समर्पित एक कविता

पिंकेश लता रघुवंशी

मेरे मात -पिता के मन में, सखी
जाने क्या थी बात समाई
देखा उन्होंने मेरे लिए ,जो
एक “संघ ” वाला जमाई
क्या कहूँ बहन मुझे न जाने
क्या -क्या सहन करना होता है ?
“इनके’ घर आने -जाने का
कोई निश्चित समय न होता है
कभी कहें दो लोगों का भोजन
कभी दस का भी बनवाते है
जब चाहे ये घर पर बहना
अधिकारियो को ले आते है
लाठिया, नेकर ,दरी – चादर बांध
बस ये तो फरमान सुनाते है
शिविर में जाना हर माह इन्हे
बिस्तर बांध निकल जाते है
प्रातः शाखा ,शाम को बैठक
कार्यक्रम अनेको होते है
दो बोल प्रेम से जो बोल सके मुझे
वो बोल ही इनपर न होते है
इनकी व्यस्त दिनचर्या से बहना
कभी -कभी तंग बहुत आ जाती हूँ
ये तो घर पर ज्यादा न रह पाते
में मायके भी न जा पाती हूँ
पर ………….
ख़ुशी मुझे इस बात की है होती
और “गर्व ” बहुत ही होता है
मेरे “इनके ” अंदर एक चरित्रवान इंसान
“स्वयंसेवक ” के रूप में रहता है
आज के कलुषित वातावरण में भी जो
नियमो से जीवन जी रहा
“संघ ” के कारण अनुशाषित जीवन
और सार्थक राह पर चल रहा
उनके कारण मैं भी तो बहन
कुछ राष्ट्र कार्य कर पाती हूँ
प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से
इस हवन में आहुति दे पाती हूँ
इसीलिए नहीं कोई शिकायत
मैं अपने मात -पिता से करती हूँ
एक स्वयंसेवक के रूप में “संस्कारी “पाया
बस ह्रदय से धन्यवाद उनका करती हूँ

परिवार और घर से दूर …….सदैव राष्ट्र सेवा में रत…… एक विस्तारक , प्रचारक का पत्र अपनी “माँ ” के लिए ……

लगता होगा तुझको माँ मैे तेरा बहुत निर्दयी बेटा हूँ

चिंता नहीं करता मैं तेरी मैं ऐसा उद्दंड और हेटा हूँ

लगता होगा तुझको ऐसा मैं दूर सदा तुझसे रहता

महीनो-महीनो दिनों -दिनों तक मैं बात नहीं हैं तुझसे करता

पर…..माँ…….

मेरा मन भी करता है माँ मैं पास तेरे रह पाऊँ

मन मेरा कहता है मुझसे मैं समय तुझे दे पाऊँ

मैं भी खाऊ हाथ की रोटी चटनी तेरे हाथो की

प्यार से तू जो डाँटे मुझको सुनु झिड़की तेरी बातों की

मन व्यथित होता जब मेरा तब आचंल याद बहुत आता

पास जो तू होती मेरे तो माँ सच गोद में सिर अपना छिपाता

क्रोध कभी जब आता है खुदपर तब भी तो तू ध्यान में है आती

डांट रही है मुझको कहकर क्रोध नहीं है तेरा संगी साथी

कभी बहुत मन होता मेरा बस पास बैठकर तुझे निहारूं

न कुछ तू बोले न मैं ही बोलूं बिन कहे व्यथा अपनी सुनालूं

पर………

कर्त्तव्य मेरे प्रण मेरे मुझको तत्क्षण ये अहसास दिलाते

मार्ग चुना जो मैया मैंने उसका कर्तव्यबोध मुझे कराते

अपनी इक्छा और तेरे आशीष से कर्तव्यपथ जो मैंने अपनाया

तेरे संस्कारों तेरे सपनो को माँ आचरण में मैंने है बसाया

याद बहुत जब आती तेरी सत्रों-पत्रों में खो जाता हूँ

मिलने का जब मन होता मेरा ,तो संघ-स्थान पहुँच मैं जाता हूँ

पत्रक ,कार्ययोजना में माँ तेरा जब चेहरा नजर में आता है

तो योजना सार्थक पूर्णरूपेण होगी ये स्वतः ही तय हो जाता है

अपने बड़ों का स्नेही हाथ जब शीश पर मेरे होता है

तो लगता तेरा आँचल मुझको अन्तश् में अपने भर लेता है

भोजन के लिए परिवारों में जाता तो अपना परिवार पाता हूँ

सपना तेरा एक छोटे घर का, माँ मैं विशाल भारत जीता हूँ

शाखा ,वर्गों में व्यस्त जब होता तो साथ सदा तेरा ही लगता

ध्वज भगवा जब लहराता है तो माँ आशीष उसमे तेरा ही झलकता

चेहरा तेरा सौम्य सा माँ मुझमे जीवंतता भर देता है

जुट जाता प्राण प्रण से संघ कार्य में मैं मुझमे इतनी ऊर्जा भर देता है

तो….मत मेरी तू चिंता करना मैं दूर भले ही तुझसे हूँ

पर तेरे ही सपनो को पूरा करने तन ,मन और ह्रदय से सलंग्न हूँ

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One comment

  1. Bahut achha hai jo ladies ke liye ap logon ne socha

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