चौपाल, मीडिया और महोत्सव

डॉ. शुभ्रता मिश्रा

चौपाल, मीडिया और महोत्सव, ये तीनों ही शब्द अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर पर गूढ़ अर्थ रखते हैं और इनको जब सम्मिलित रुप से विश्लेषित किया जाता है, तब इनका समग्र स्वरुप विविध दृष्टिकोणों से कहीं बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। चौपाल को अब एक ऐसी भारतीय संस्कृति कहा जा सकता है, जो वर्तमान में अपने विशुद्ध रुप में कहीं भी दिखाई नहीं देती है। यहां तक कि उन ग्रामीण अंचलों के चबूतरों पर भी नहीं, जहां कभी यह गांवों की शामों की शान हुआ करती थी।

मीडिया महोत्सव – 2018 संचारकों का जुटान – 31 मार्च-01 अप्रैल, 2018 मीडिया चौपाल से मीडिया महोत्सव : संचारकों के सशक्तिकरण की कवायद मीडिया महोत्सव का आयोजन 31 मार्च-01 अप्रैल, 2018 (चैत्र पूर्णिमा- वैशाख कृष्ण प्रथमा, विक्रम संवत 2075) को भोपाल (मध्यप्रदेश, भारत) स्थित ‘मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् परिसर में होगा l सहभागी होने के लिए कृपया पंजीयन करें http://www.spandanfeatures.com/media-chaupal-registration/

मीडिया चौपालों की सफलता ने मीडिया महोत्सव के लिए प्रेरित किया। तय यह हुआ कि वर्ष भर देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग मुद्दों पर क्षेत्रीय स्तर पर छोटे-बड़े मीडिया चौपालों का आयोजन होगा। फिर साल के अंत में देशभर के चौपाली मीडिया महोत्सव के लिए जुटेंगे। इसमें पत्र-पत्रिका, रेडियो-टेलीविजन, वेब-ब्लॉग व डिजिटल माध्यमों के कर्मशील तो होंगे ही साहित्य-सिनेमा, कला-संस्कृति के धर्मी भी होंगे। पुस्तकों और फिल्मों का प्रदर्शन भी होगा और रंगकर्म की प्रस्तुति भी। संचार माध्यमों की पुरातन और नूतन विधाओं का संयोग होगा यह मीडिया महोत्सव। इस बार मीडिया महोत्सव भारत की सुरक्षा पर केन्द्रित है। मीडिया क्षेत्र में रूचि रखने वाले विद्यार्थी, अध्येता, अध्यापक, पत्रकार, साहित्यकार, ब्लॉगर, वेब संचालक, लेखक, मीडिया एक्टिविस्ट, संचारक, मत-निर्माता, रंगकर्मी, कला-धर्मी मीडिया महोत्सव में सहभागी हों यही प्रयास है ।

चौपाल हमारे गांवों की एक संध्याकालीन परम्परा हुआ करती थी, जब गांव के लोग किसी स्थान विशेष और संध्या समय पर एकत्रित होकर किसी विषय विशेष पर परिचर्चा करते थे, विचार-विमर्श होता था और अंत किसी सार्थक परिणाम को लिए ही होता था। एक आदर्श चौपाल में शामिल हुआ करता था- ग्रामीण बुजुर्गों का अनुभवजनित निर्णय, युवाओं का अनुशासित मौन, किसी समस्या का सर्वसम्मत समाधान, किसी विषय पर सारगर्भित उद्धरण-सम्मत विमर्श और एक ग्रामीण अकादमियत वातावरण, घर से ही संचालित स्त्रियों की मूक वाचालता और सबसे बढ़कर सभी के प्रति सम्मान के अदृश्य हस्ताक्षर और सील। यही कारण था कि गांवों में सुदीर्घ शांति व्याप्त हुआ करती थी, कहीं कोई असंतोष, कोई मनोग्रंथि, कोई हिंसा और कोई विरोध कुछ भी नहीं होता था। यही कारण था कि ऐसे आदर्श चौपालों में संध्या से रात्रि के मध्य का छोटा सा समय भी एक निर्णय पर पहुंचकर लोगों को रात में सुकून की नींद सोने देता था और अगली शाम फिर किसी नए चौपाल की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगती थी।

चौपाल आज भी गांवों में मिलते हैं, पर अपने विशुद्ध आदर्श रुप खो चुके हैं। ग्रामसभाओं, पंयायतों, सरपंचीय प्रशासनों में घुस आए छोटे-बड़े भ्रष्टाचारों ने चौपालों से उनकी उन्मुक्त सत्यता छीन ली और उनको जड़ों से हिलाकर खोखला बना दिया। चौपालें आज भी बैठती हैं, पर चबूतरों पर पूरे तामझाम के साथ लाल कारपेट बिछने लगे हैं। यह बात आज हमें मीडिया से पता चलती है। मीडिया यानि चौपालों का ऐसा परिष्कृत व परिमार्जित स्वरुप जिसकी सीमाएं गावों की सरहदों को लांघती हुईं भूमण्डल के मानचित्र की बाहरी सीमाओं तक विस्तारित हो गई हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा, कि चौपाल मीडिया के रुप में भूमण्डल के बाहर भी चांद, मंगल और अन्य ग्रहों पर घूमने लगा है। या यूं कहें कि चौपाल अब महोत्सव मनाने लगा है।

प्राचीन आदर्श चौपालों को एक तरफ रखकर यदि तत्कालीन ग्रामीण विचार-विमर्श परम्परा को और अधिक विश्लेषित करें, तो एक शब्द और दिखाई पड़ता है, वह है प्रपंच। हांलाकि प्रपंच चौपालों का प्रदूषण कारक कहा जा सकता है। जब चौपालों ने अपने आदर्श स्वरुप को खोना शुरु किया, तो उसके पीछे सबसे बड़ा कारण प्रपंच ही था। किसी विषय विशेष पर स्वस्थ निर्णय न आ पाना या न ले पाना, प्रपंच की सबसे पहली जीत थी और यहां से चौपाल परम्परा में दीमक लगनी शुरु हो गई। संचार क्रांति ने चौपालों को मीडिया का रुप प्रदान किया। अखबारों, रेडियो, दूरदर्शन और अब डिजिटल व सोशल मीडिया तक के बहुत बहुत लम्बे दौर ने जहां चौपालों को आधुनिक रुप में मीडिया बना दिया, वहीं समानांतर में कहीं प्रपंचों का भी आधुनिकीकरण होता गया। जिस प्रपंच ने ग्रामीण चौपालों की आत्मा को अशुद्ध करने के सफल प्रयास कर लिए, उसी प्रपंच ने अपने आधुनिक स्वरुप में मीडिया की शुचिता पर भी काफी प्रहार किए हैं।

चौपालों और मीडिया के इतिहास को तिथिवार जानना और उसके माध्यमीय विकास पर विमर्श करना एक अलग विषय है। इनके बारे में इंटरनेट पर जानकारियां अटी पड़ी हैं। इनका पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में सम्बद्ध लोग अनुशीलन कर रहे हैं, लेकिन उसका व्यावहारिक स्तर पर प्रयोग उतना ही गैर-प्रयोगिक हो गया है, जितना कि अन्य विषय आजकल पाठ्यक्रमों में बन गए हैं। अतः वर्तमान परिपेक्ष्य में चौपाल और मीडिया के उन बिंदुओं के विश्लेषणों की आवश्यकता अधिक प्रासंगिक हो जाती है, जो इनके स्वरुप को धूमिल करने के लिए उत्तरदायी बनते जा रहे हैं। सिर्फ भारत के संदर्भ में बात की जाए, जहां चौपाल विमर्श के आदर्श स्थल हुआ करते थे और जहां आज मीडिया से लोग कहीं न कहीं खौफ खाते हैं, कि कुछ गलत करने पर पोल न खुल जाए। निःसंदेह यह मीडिया का वो चेहरा है, जो अपने उत्तरदायित्वों अथवा सामाजिक कर्तव्यों को भलीभांति समझने की झलक दिखाता है। लेकिन किसी भी विधा का अतिव्यावसायीकरण और उच्चमहत्वाकांक्षीकरण उसे उसके नैतिक पतन के लिए विवश कर देता है। चौपालों की नैतिकता में गिरावट के कारण जहां तत्कालीन उद्भवित प्रपंच हुआ करते थे, तो वहीं आज मीडिया में भी कुछ ऐसे प्रपंचीय तत्व प्रवेश कर गए हैं, जो मीडिया को नीतिगत कर्तव्यों से विमुख कर रहे हैं।

समय के साथ मानदण्डों का बदलना एक सीमा तक उचित लगता है, परन्तु जब सीमाएं फाड़कर उनमें जबरन पैबंद लगाकर या तो फटेपन को ढकने का प्रयास किया जाए या उधेड़-उधेड़कर मजाक का विषय बनाया जाए, ये दोनों ही बातें चौपाल और मीडिया दोनों के पत्रकारिता गुणधर्म के विरुद्ध हैं। डिजिटल युग में टीवी चैनलों की भरमार, ऑनलाइन पत्रकारिता परम्पराओं और सोशल मीडिया की बढ़ती प्रवृत्ति ने हर व्यक्ति को लेखक और पत्रकार बना दिया है। आज समाज लेखकों और पत्रकारों से भरा पड़ा है। सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली है और एक जगह जो दिखता है, जो घटता है, पलों में पूरी धरती पर पहुंच जाता है। इसे संचारक्रांति कहकर अवश्य प्रसन्न हुआ जा सकता है, लेकिन पत्रकारिता पर हुए इस प्रहार को सिर्फ वे ही समझ सकते हैं, जो मीडियाकर्मी होने के मापदण्डों और कर्तव्यों को भलीभांति समझते और पहचानते हैं। पिछले कुछ दशकों से सर्वज्ञ होने का प्रचलन जो बढ़ा है, उसने मीडिया क्षेत्र को भी कहीं न कहीं प्रभावित किया है।

व्यावसायिक चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक सामाजिकता और राष्ट्रीयता को विचलित कर सकने वाले भड़काऊ विषयों को अधिक से अधिक तरज़ीह देना, उन पर लगभग दिनभर अलग अलग तरहों से तथाकथित विचारविमर्श चलाते रहना एक मीडिया प्रवृत्ति बनती जा रही है, जो कहीं न कहीं मीडिया की परिभाषा को बदल रही है। जिस तरह से देश के शिक्षातंत्र में प्राइवेट स्कूलों और संस्थानों के अनगिनत रुप में खुलने और उनमें अनुभवहीन और अस्थायी शिक्षकभर्ती प्रचलन ने शैक्षिक गिरावट की है, ठीक उसी तरह का कुप्रभाव मीडिया क्षेत्र में भी देखने को मिला है। अनगिनत खुलते जा रहे चैनलों और अब यू-ट्यूब संस्कृति ने मानवीय शालीनता की समस्त सीमाएं तोड़ दी हैं। वहीं असमाजिकता और अभद्र भाषा का प्रयोग जैसे आम बात हो गई है। कहीं न कहीं यह संचारक्रांति के विकास का मीडिया की आदर्श परिभाषा पर पड़ा गहरा प्रहार कहा जा सकता है।

ऐसे प्रहारों से मीडिया को संरक्षित करने के लिए मीडिया महोत्सवों के आयोजन प्रासंगिक हो जाते हैं। यहां महोत्सव आत्ममंथन, विकास के विचारों और विषयगत समीक्षाओं के लिए ही नहीं करने होंगे, बल्कि इन सभी विषयों के साथ आज मीडिया महोत्सव इसलिए भी जरुरी हो गए हैं कि पत्रकारिता पर जिस तरह से सोशल मीडिया के माध्यम से अप्रशिक्षित लेखकों और पत्रकारों ने घात करके मीडिया को कटघरे में लाकर खड़ा करना चाहा है। वह निःसंदेह चिंता का विषय है, गहन विचार का विषय है, प्रशिक्षित और कर्तव्यनिष्ठ मीडियाकर्मियों को संकल्पबद्ध बनाने के लिए मीडिया चौपालों और मीडिया महोत्सवों का होना सिर्फ सत्रों में विषयों के औपचारिक विमर्शों तक सीमित नहीं होने चाहिए, बल्कि प्रयोगिकतौर पर मीडिया क्षेत्र में जो समस्ययाएं उभर रही हैं, उनके समुचित समयसीमित समाधान बहुत जरुरी हो गए हैं। आम लोगों और अप्रशिक्षित पत्रकारों और चलताऊ लेखकों की तरह प्रबुद्ध मीडियाकर्मी भी यदि सिर्फ विरोध जताने या मजाक बनाने या व्यक्ति विशेष के पीछे पड़ जाने जैसे काम करने लगेंगे, तब मीडिया अपने मानदण्डों से विचलित होने लगेगा। लोक अभिव्यक्ति के दायरों में आने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों से बने छद्म मीडिया समाज से स्वयं को अस्पृश्य बनाए रखते हुए विशुद्ध मीडिया समाज से जुड़े रहना आज कर्मठ मीडियाकर्मियों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। मीडिया महोत्सव इन चुनौतियों पर गहनता से विमर्श की अपेक्षा रखते हैं।

मीडिया में फैल रहे मुद्दों और भाषा के प्रदूषण से उसे बचाए रखने और उसकी शुचिता व अस्मिता बनाए रखने की परीक्षा का हल भी मीडिया से ही निकालना है, जो अपनेआप में बहुत कठिन परिस्थिति है। मीडिया महोत्सव कोई उत्सव नहीं बल्कि ऐसा महाकुम्भ है, जिसमें जो डुबकी लगाकर मोक्ष पा रहे हैं, वे ही सच्चे मीडियादूत साबित होंगे और जो डूबेंगे, ये वो मीडिया अधर्मी होंगे, जो मीडिया को डुबाने चले थे। यानि मीडिया महोत्सव में मीडिया और मीडिया के बीच ही पारदर्शिता बनानी होगी। एक ऐसे प्रतिविम्ब का निर्माण आवश्यक हो गया है कि पाठक और दर्शक वर्ग स्वयं यह निर्धारित कर सकें कि वास्तविक मीडिया कौन सा है।

मीडिया में सच्चे पत्रकारों और लेखकों की भांति सच्चे पाठक और दर्शक भी होते हैं। आज यह समय की सबसे बड़ी मांग है कि मीडियाकर्मी अपने पत्रकारिता धर्म के प्रति उत्तरदायित्व और निष्ठा के पथ पर चलते हुए ईमानदारी के साथ समाज के समक्ष प्रत्येक विषय और मुद्दे को सत्यरुप में प्रस्तुत करें। मानवता, समाज राष्ट्र और विश्व हितों की रक्षा में की जाने वाली पत्रकारिता से ही छद्म और विशुद्ध मीडिया के मध्य निर्मित हो रहे भ्रम को मिटाया जा सकता है।

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2 comments

  1. एक औऱ मीडिया चौपाल का आयोजन शानदार होगा

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