‘अलग–अलग विधाओं में लिखकर मैं अपने व्यक्ति और रचनाकार की बहुमुखता और बहुवचनता की रक्षा ही करता हूँ।’
कोई भी लेखक या साहित्यकार समाज को केन्द्र में रखे बगैर कोई सृजन नही कर सकता है वह स्वान्तः सुखाय भी लिख रहा है तो भी कहीं न कहीं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समाज उसके सामने है। रचनाकर्म आज के समय में पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। कविता, कहानी, निबंध तथा वैचारिक लेखादि के माध्यम से अपने समय में हस्तक्षेप करनेवाले लेखक-बुद्धिजीवी शिवदयाल को 23 वीं पावस व्याख्यानमाला में सुनना रोचक व सार्थक रहा। कविताओं] कहानियों के अलावा इतिहास] राजनीति और संस्कृति संबंधी विषयों पर आपके वैचारिक लेख काफी चर्चित हैं। आप पाठक के साथ सीधे जुडना पंसद करते हैं। कवि] कहानीकार] निबंधकार] व संपादक शिवदयाल जी से बातचीत का सिलसिला शुरू करते हैं…….
प्रीति – किसी भी रचनाकार के जीवन में उसके बचपन का बहुत महत्व होता है। बचपन के अनुभवों का प्रभाव जीवन भर रहता है। आपकी शुरूआती दौर में क्या-क्या गतिविधियाँ थीं, साहित्य के बीज का अंकुरण कब और कैसे हुआ?
शिवदयाल – मेरा जन्म काठमांडु में हुआ। वहाँ पिता बिहार सरकार द्वारा डेपुटेशन पर इंडियन एड मिशन में भेजे गए थे। जन्म के साल-डेढ़ साल बाद ही पटना वापस आ गए। तो होश में काठमांडु या नेपाल या हिमालय देखा नहीं, लेकिन तरह-तरह की कल्पानाएँ मन में बनती रहतीं। चार भाई-बहनों में सबसे छोटा हूँ। लाड़-दुलार तो मिला लेकिन मैं एक संवेदनशील बच्चा था, अनेक प्रकार के प्रभावों को ग्रहण करता। पिता कर्मयोगी थे, लेकिन उन्मुक्त स्वाभाव के, उत्सवधर्मी व्यक्ति, परम उत्साही, और बच्चों को लेकर महत्वकांक्षी। उन्हें अपने बच्चों पर गहरा विश्वास था, उन्हें जैसे मालूम था कि उनके बच्चे पथभ्रष्ट नहीं होंगे। माँ गहरी जीवन-दृष्टि वाली महिला थी। करूणामयी, उदार, परदुःखकातर, स्वयं सहकर भी दूसरों की मदद करने वाली। उसे सैंकड़ो कहावतें और लोकोक्तियाँ याद थीं जिनको वह जब-तब उद्धृत करती। ठठाकर हँसनेवाली महिला थी माँ, अल्पवय में ही पिता की छाया से वंचित। मूल्यबोध जो अंदर आया उसका मूल स्रोत माँ ही थी। काठमांडु के पशुपतिनाथ मंदिर से बाबा आया करते थे कई-कई वर्षों पर विशेषकर कुंभ-अर्द्धकुंभ के मौकों पर। बहुत छोटी वय में उनके मुख से सुना था- ‘जाति-पाति पूछे नहि कोई, हरि को भजै सो हरि के होई; तो ऐसा महौल था। बासठ, पैंसठ और इकहत्तर के युद्धों की छाया में हम बड़े हो रहे थे। देशभक्ति और आदर्शवाद भी अंदर हिलोरें मार रहा था। सन् चौहत्तर में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन शुरू हुआ तब दसवीं में पढ़ता था। पहले बड़ी बहन आंदोलन में आई, फिर मैं भी शामिल हुआ। दुनिया को नई दृष्टि से देखना शुरू किया। रेडियों से जुड़ा, युववाणी से, और इसी दौर में लिखने की शुरूआत भी हुई। लेकिन प्रकाशन को लेकर मैं वास्तव में गंभीर हुआ अंतिम दशक की शुरूआत में। इस बीच 1983-85 के बीच स्वतंत्र पत्रकारिता भी की थी, कई लेख लिखे थे। काँग्रेस के सौ साल पर ‘प्रदीप में धारावाहिक रूप में उसका संक्षिप्त इतिहास भी छपा 1985 में।
प्रीति – आपकी रचनाओं का फलक बड़ा है, अपने समय का यथार्थ अपनी तमाम जटिलताओं, व विदू्रपताओं, साथ ही संभावनाओं के साथ भी सामने आता है। अभी आपकी कविता – ‘अंत, अंत हे गर्दनीबाग!’ का ध्यान आ रहा है। कैसे यह रचना एक लंबी कविता में ढल गई?
शिवदयाल – गर्दनीबाग वह मोहल्ला है जहाँ मेरा बचपन बीता, जहाँ जवान हुआ, जहाँ से दुनिया देखना शुरू हुआ, जहाँ से लिखने की शुरूआत भी हुई और मुटिठयाँ तानने की भी। सौ साल पहले ब्रिटिश राज में इसे बाबुओं के लिए बहुत ही सुंदर, व्यवस्थित ढंग से बनाया-बसाया गया था। देख-रेख के अभाव में इसकी दशा बिगड़ती चली गई और अब ‘हेरिटेज’कॉलोनी के हकदार इस मोहल्ले को मिटाकर अट्टालिकाएँ खड़ी की जाएँगी। ‘बेशकीमती’जमीन पर यह हरा-भरा, तरह-तरह के वनस्पतियों व जीव जंतुओं से आबाद इलाका विकास की भेंट चढ़ रहा है। जब चार-पाँच साल पहले मैंने इस पर लिखना शुरू किया मेरी स्मृतियाँ और निजी अनुभव उस पूरे इलाके के अनुभवों में रूपांतरित होते गए और एक मोहल्ले ‘गर्दनीबाग’का मानवीकरण होता चला गया। सच पूछिए तो अभी भी इस कविता में विस्तार की गुंजाइश है!
प्रीति – आपकी कहानी ‘मुन्ना बैंडवाले उस्ताद’बहुत चर्चित हुई। यह कहानी सामुदायिक संबंधों पर आधारित है, एक बाजावाले की कहानी जो दूसरों की बारात सजाता रहता है लेकिन खुद जिसकी शादी नही हो पाती! ऐसे विषयों पर लिखने, के लिए क्या तैयारी करनी पड़ती है?
शिवदयाल – एक शाम जब पड़ोस में एक बारात निकल रही थी और मास्टर ने ब्लैरिनेट पर ‘पंख होते तो उड़ आती रे रसिया ओ बालमा‘की तान छेड़ी, एक फ्लैश में यह कहानी आई। मैं, यानी मेरे अंदर का कहानीकार जैसे उस मास्टर के चरित्र में प्रवेश कर गया। बचपन की संस्मृतियाँ, संगीत के प्रति लगाव, बहुभाषायी व बहुसामुदायिक परिवेश का निम्नमध्यवर्गीय अनुभव और पड़ोसपन की मिठास – यही कुछ इस कहानी का कच्चा माल था। इस कहानी में कुछ सूक्ष्म और तकनीकी ब्यौरे हैं। मैंने कई बाजा वालों से उनके साजों, बजाने के तरीकों आदि के बारे में बात की थी। इस काम के जोखिमों के बारे में भी जानकारी ली थी, तो थोड़ी बाहरी तैयारी भी की गई। विषय की जरुरतों के लिए ऐसा करना पड़ता है। दो साल पहले अफ्शाँ बानो ने इस कहानी का उर्दू अनुवाद किया जो दो उर्दू पत्रिकाओं में छपा।
प्रीति – आपकी कविता ‘शरणार्थी बच्चा’बहुत पंसद की गई जो शरणार्थी संकट पर है। उषा मेहता ने इसका मराठी अनुवाद किया है। इसके बारे में कुछ बताएँगें?
शिवदयाल – हाल ही में सीरिया और मध्यपूर्व के देशों में गृहयुद्ध के चलते बहुत ही विकट और व्यापक शरणार्थी संकट खड़ा हुआ। वहाँ के लोग भागकर तुर्की के रास्ते यूरोप और दूसरी जगहों का रूख करने लगे। कितने लोग स्त्री-पुरूष और बच्चे रास्तें में ही खत्म हो गए। कितने देशों ने अपने दरवाजे उनके लिए बंद कर दिए। एक दिन तुर्की के एजीयन सागर के बोडरम समुद्रतट पर एक बच्चे का अकेला शव मिला। इस मृत बच्चे की तस्वीर ने दुनियाभर में हलचल मचा दी और मानो शरणार्थियों के प्रति संवदेना का ज्वार उमड़ पड़ा। यह कविता ‘शरणार्थी बच्चा’उसी सीरियन बच्चे आलेन कुर्दी के बहाने शरणार्थी संकट और संत्रस्त आबादियों के आप्रवास पर केन्द्रित है। जनसत्ता में छपी इस कविता का मराठी अनुवाद आदरणीया उषा मेहता जी ने किया जो ‘दीपावली’में छपा। उषा मेहता मराठी साहित्य का प्रतिष्ठित नाम है, उनका अनुग्रह मानता हूँ कि उन्होंने मेरी एक कहानी ‘दायरा’तथा लेख ‘भारतीय राष्ट्रवाद की भूमिका’का भी अनुवाद किया जो क्रमशः ‘मिलून सारयाजणी’, तथा प्रतिष्ठित ‘साधना’में छपे। उनके प्रति कृतज्ञ हूँ , यह कविता मराठी में भी सराही गई। यह भी बता दूँ कि मेरी एक लंबी कहानी ‘नॉस्टैल्जिया’9/11 की पृष्ठभूमि पर है और एक बिहारी बंगाली युवा प्रवासी इंजीनियर इसका मुख्यपात्र है। इसके बांग्ला अनुवाद पर काम चल रहा है।
प्रीति – आपका उपन्यास ‘छिनते पल छिन’प्रेम संबंधों पर आधारित है। अपने पहले ही उपन्यास में इस विषय को चुनने की कोई खास वजह?
शिवदयाल – ‘छिनते पल-छिन’वास्तव में मेरी पहली प्रकाशित कथाकृति है। सबसे पहले इसे पटना के ही एक प्रकाशक ने छापा था, लेकिन जल्द ही उसने व्यवसाय ही उठा लिया। यह एक धक्का जैसा था, बाद में नेशनल वालों ने इसे प्रकाशित किया। मैने कहा, मैं आंदोलन से जुड़ा था – परिवर्तकामी आंदोलन! सत्तर और अस्सी के दशक (पूर्वार्द्ध) में स्त्री-पुरूष संबंधों को लेकर गंभीर बहस चली थी। उपन्यास का ब्लूप्रिंट तभी बना था सन् 1981 में। हालाँकि बहुत बाद में यह मुकम्मल हुआ और छपा। परिकल्पना थी कि एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर स्त्री की कैसी छवि हो सकती है, जो अपने निर्णयों में स्वतंत्र हो, विकल्पों के चुनाव में स्वतंत्र हो। और इसमें पुरूष की कैसी भूमिका हो सकती है। क्या एक सहयोगशील, सदाशय पुरुष वास्तव में कोरी कल्पना है? उपन्यास का कलेवर बड़ा नही है, इसमें ’कहानी की क्षिप्रता’है। नायिका या मुख्यपात्र ल्योना अपनी कथा कहती है – प्रथम पुरूष में स्त्री पात्र कहानी कह रहा है। गोपाल राय जी (अब दिवंगत) ने 1950 के बाद जन्में युवा उपन्यासकारों की कृतियों पर काम किया था। उन्होंने इस उपन्यास के प्रेम विषयक विजन को लीक से अलग हटाकर और इसीलिए मौलिक और आकर्षक बताया। उन्होंने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’की एक सूक्ति का जिक्र किया कि नारी की सफलता पुरूष को बाँधने में है, सार्थकता मुक्त करने में।’इस उदात्त सूत्र-वाक्य को इस उपन्यास में एक नये अंदाज में, और आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। ऐसा उनका मानना था, जो बहुत हद तक सही भी है। प्रेम और सामाजिक नैतिकता का द्वन्द्व भी इस उपन्यास में है।
प्रीति – आपने बच्चों के लिए भी काम किया है। कहते हैं बच्चों के लिए लिखने के लिए बच्चा बनना पड़ता है। आपने बच्चों की पत्रिका ‘झिलमिल जुगनू’का संपादन किया है। हिन्दी में बाल साहित्य का परिदृश्य आपको कैसा दिखाई देता है?
शिवदयाल – सच है कि बच्चों के लिए लिखने के लिए आपको बच्चा बनना पड़ता है। बच्चों की आँखो से दुनिया को देखना होता है। यह एक रचनाकार के रूप में आपकी संवेदनशीलता और कल्पनाशीलता की बड़ी कठिन परीक्षा है। यही नहीं, संप्रेषण के स्तर पर भी आपको बहुत सृजनात्मक होना होता है, और उतना ही सावधान भी। कभी-कभी आपको पाठ में बच्चों की जिज्ञासा और कल्पनाशीलता को उकसावा देने वाले, उनमें मूल्यबोध जगाने, बल्कि रोपने वाले ‘इनपुट्स’भी देने होते हैं। तो कुल मिलाकर साहित्य का यह एक अलग ही विषयानुशासन प्रतीत होता है। बांग्ला जैसी भाषा में तो आपको पक्का लेखक तभी माना जाता है, जब आपने बच्चों के लिए भी स्तरीय चीजें लिखी हों। हमारे यहाँ ‘बाल साहित्यकारों’की एक अलग ही कोटि या वर्ग बना दिया गया है और बाल साहित्य संबंधी चर्चा वहीं तक सिमटी रहती है। यक एक तथ्य है कि हमारे लेखक शायद ही बाल साहित्य पढ़ते हैं, बहुत कम लोग हैं जो रचते भी हैं। बाल साहित्य लिखा तो जा रहा है विपुल मात्रा में, लेकिन स्तरीय रचनाओं की अभी भी बहुत जरूरत है। किशोरों के लिए, नव राक्षरो के लिए भी पाठ्य सामग्री चाहिए – साहित्य और कहानी-कविता ही नहीं, समाज विज्ञान और शुद्ध विज्ञान संबंधी विषयों के लिए भी। बच्चों पर पाठ्यक्रम पूरा करने का दबाव इतना है कि पाठ्य पुस्तक से बाहर की सामग्री देखने-पढ़ने का उनके पास समय नहीं। अभिभावक भी इस ओर से उदासीन हैं, टीवी की जो घुसपैठ है वह अलग। बच्चों के दैनंदिन जीवन में साहित्य के लिए जगह बनाना अलग से एक काम है – परिवार और स्कूल के भी जिम्मे।
प्रारंभिक शिक्षा के सृजनात्मक पक्ष से मेरा जुड़ाव रहा है। स्पीड, बिहार शिक्षा परियोजना, ईस्ट एण्ड वेस्ट एजुकेशनल सोसायटी जैसी संस्थाओं के लिए समय-समय पर काम करता रहा हूँ। वंचित बच्चों के लिए, ड्रापआउट बच्चों के लिए मैंने पाठ्य-पुस्तकें बनाई। भाषा शिक्षण सामग्री वगैरह बनाई। ओरियंट लैंगमैन के अनुराग पाठमाला के लिए कई अध्याय लिखे। भारत सरकार के सहयोग से ईस्ट ऐंड वेस्ट एजुकेशनल सोसायटी द्वारा प्रकाशित बच्चों की पत्रिका ‘झिलमिल जुगनू’तथा शिक्षक की पत्रिका ‘ज्ञान विज्ञान’का संपादन भी किया। ‘झिलमिल जुगनू’एक नए फार्मेट की पत्रिका थी जिसे बहुत सराहना मिली। लेकिन हमारे हिन्दी समाज में ऐसे प्रयासों की निरंतरता को बनाए रखना प्रायः संभव नहीं हो पाता। हाँ, मैं बिहार बाल भवन ’किलकारी’से भी जुड़ा रहा हूँ, स्थापना काल से ही। बच्चों के लिए काम करके विलक्षण संतोष मिलता है, आप अपने को ऊर्जस्वी भी अनुभव करते हैं। उनका निश्छल प्यार अलग से बोनस है .. ।
प्रीति – आपकी लेखनी अनेक विधाओं पर चल रही है। यह कैसे संभव हो पाता है, आपको लगता है ऐसे में रचना कर्म के साथ न्याय हो पाता है?
शिवदयाल – हाँ मेरा लेखन बहुविधात्मक है, लेकिन यह सायास, हाथ आजमाने जैसा नहीं है, सहज ही सधता आया है यह। अभिव्यक्ति विधाओं के रूप में अलग-अलग फार्म में प्रकट होती है। जो कहानी में कहना है वह निबंध में नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार कहानी का विषय कविता में नहीं उतर सकता। एकाधिक विधाओं में काम करना रचनाकार का अपना चुनाव है और यह बहुत कुछ उसके अपने व्यक्तित्व व स्वभाव पर निर्भर करता है। शुरू से मुझे अलग-अलग चींजे करने में आनंद आता है। लेखन से भी पहले, सबसे आरंभिक लगाव तो मेरा संगीत से रहा और पेंटिंग से। मन लिखने में ज्यादा रमा, फिर मैंने इसमें रूप या विधा को बाधा नहीं बनने दिया। और यह भी नहीं कि एक या दूसरी विधा पहले या बाद में आई। युववाणी के कार्यक्रमों में कविता, कहानी, संस्मरण, सब चलता था। लेख-निबंध भी लगातार लिखता रहा। वैचारिक लेखन या विचार साहित्य भी अत्यंत जरूरी सृजनात्मक उपक्रम है। ललित निबंध मैंने कम लिखे लेकिन जब भी लिखा एक अलग ही प्रकार के तोष से भर गया। वैसे तो पाठक ही निर्णयकर्ता है लेकिन विषय की जरूरत के हिसाब मैं विधा का चुनाव करता हूँ, यह भी कह सकते हैं कि विषय स्वयं विधा, यहाँ तक कि फार्म और भाषाशैली का भी चुनाव कर लेता है। मैंने तो अब तक अपनी ओर से रचना के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। मैं तो कहुँगा कि अलग-अलग विधाओं में लिखकर मैं अपने व्यक्ति और रचनाकार की बहुमुखता और बहुवचनता की रक्षा ही करता हूँ।
प्रीति – अभी हिन्दी में आलोचना की क्या स्थिति है, आपने अपने व्याख्यान में ऐसा संकेत दिया कि आप इससे संतुष्ट नहीं हैं, आपने ‘आलोचना के राजपथ’की बात कही। आपको ऐसा क्यों लगता है?
शिवदयाल – आलोचना के लिए पहले रचना को चुनना होता है। यह चुनाव पूरी बौद्धिक ईमानदारी और तटस्थता के साथ होना चाहिए और इसमे सिर्फ और सिर्फ रचना को ध्यान में रखना चाहिए। अब यह तो एक खुला सच है कि हमारे यहाँ रचना से अधिक रचनाकार का ध्यान रखा गया – उसके वैचारिक रूझानों का, उसकी उठ-बैठ और आवाजाही का, और वह सब कुछ आलोचक के अनुकूल रहा तो फिर उसके काम को मूल्यांकन योग्य माना गया, उसकी प्रशस्ति भी हुई। अन्यथा की स्थिति में रचनाकार गया काम से। ऐसे में रचनाशीलता का बहुत नुकसान हुआ, अनेक कृतियाँ और उनके कृतिकार प्रकाश में आने से रह गए, पाठक बेहतर रचनाओं के आस्वादन से रह गए। आलोचना के माध्यम से रचना का पुनराविष्कार होता है, वह केवल मूल्यांकन तक सीमित नहीं। बहुत तैयारी का काम है आलोचना। बहुत श्रम और समय खर्च कर कोई आलोचक बनता है। आज हिन्दी में इतना कुछ लिखा जा रहा है, इतने सारे विषय-वैविध्य के साथ लेकिन जब हम किसी एक कालखंड की रचनाशीलता पर बात करते हैं तो चर्चा कुछ रचनाकारों तक ही सिमटी रह जाती है। इन्हीं अर्थो में मैंने अपने वक्तव्य में ‘आलोचना के राजपथ‘की बात कही जिस पर थोड.े लोगों की, यानी रचनाकारों की आवाजाही है। रचना का जनपथ इसे चुनौती दे रहा है जो वास्तव में हाशिए से निर्मित हुआ है। मैं मानता हूँ कि आलोचक को सेलेक्टिव होना पड़ता है लेकिन आलोचना समदृष्टि और न्यायबुद्धि से युक्त हो तभी सार्थक होती है। आलोचना में वर्गीय दृष्टि की तूती बोलती रही, लेकिन अब उसी से कम नहीं चल सकता। यर्थाथ पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा संश्लिष्ट और परतदार है, आलोचना के नये औजारों और निकषों को आजमाना भी आज के आलोचक की जिम्मेदारी बनती है।
प्रीति – आपके वैचारिक लेख भी चर्चित हुए हैं, आपकी गिनती निबंधकारों में भी होती है। आप स्वयं पर किन निबंधकारों का प्रभाव मानते हैं?
शिवदयाल – लेख निंबंध मैं अधिक निरंतरता से लिखता रहा हूँ। अपने समय में हस्तक्षेप का यह एक बहुत कारगर तरीका है। शायद इसलिए भी कि यह संभवतः सबसे स्वाधीन अभिव्यक्ति है लेखक या निबंधकार की जिसमें वह किसी विषय-विशेष पर पाठक के साथ सीधा, प्रत्यक्ष रूप से अपनी चिंता या विचार साझा कर सकता है। इतिहास, राजनीति और संस्कृति संबंधी विषयों पर मैं लिखता रहा हूँ। मुझे हमेशा लगता रहा है कि निबंध लेखन लेखकीय व्यक्तित्व को पूर्ण बनाता है। यहाँ यह भी कहना जरूरी लगता है कि वैचारिक लेख और निबंध में मौटे तौर पर खास फर्क नहीं है, तकनीकी तौर पर भले महीन फर्क हो। लेख में, वैचारिक लेख में लेखक थोड़ा औपचारिक होता है जबकि निबंध में वह आत्मीय हो सकता है।
हिन्दी में निबंध लेखन की एक सुदृढ़ परम्परा भारतेंदु युग से ही चली आ रही है। लगभग सभी बड़े लेखक बड़े निबंधकार भी रहे हैं। मुझे हजारी प्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय ने विशेष रूप से प्रभावित किया है। जैनेन्द्र, अज्ञेय, विद्यानिवास मिश्र और निर्मल वर्मा, बल्कि महादेवी का निबंध-साहित्य भी अनुपम है। वर्तमान में रमेशचंद्र शाह के निबंधों का कायल हूँ मैं! जहाँ तक प्रभाव की बात है कोई भी लेखक अपने पूर्ववर्तियों के प्रभाव से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता। ये सभी बहुत बड़े लेखक-विचारक हैं। लेख-निबंध में विचार, चिंतन और विश्लेषण का बहुत महत्व है, और अपनी तो संवेदना ही मूल पूँजी है।
प्रीति – आप एक पत्रिका, ’विकास सहयात्रीं‘के संपादक भी हैं। साहित्य सृजन और पत्रकारिता इन दोनों कार्यों को आपने निष्ठा और कुशलता के साथ साधा है। इसे आप कैसे देखते हैं?
शिवदयाल – बिहार जैसे पिछडे़ हिन्दी प्रदेशों में राजनीति में विकास को, लोगों की मूलभूत जरूरतों को एजेण्डे पर लाने के लिए बिहार विभाजन के पश्चात सन् 2000 में बिहार, झारखंड के कुछ बुद्धिजीवियों एवं कार्यकर्ताओं ने एक विकास केन्द्रित पत्रिका ‘सहयात्री’का प्रकाशन शुरू किया। सन् 2003-04 में मैं इससे जुड़ा और 2009 से इसका संपादक हूँ। अब यह ‘विकास सहयत्री के नाम से पंजीकृत है और छप रही है। यह एक बिल्कुल अलग फार्मेट की त्रैमासिकी है जिसका हर अंक जन सरोकरों से संबंधित किसी एक मुद्दे पर एकाग्र होता है। इसमें गत्यात्मकता एंव विकास संबंधी अद्यतन विमर्शों को स्थान मिलता है। यह एक अलग तरह का काम है जिसकी अब तो आदत हो गई है।
पिछले कुछ दशकों में कुछ विचित्र लेकिन त्रासद बात यह हुई कि साहित्य का पहले सिनेमा से और बाद में पत्रकारिता से भी रिश्ता लगभग टूट चला। दोनों की हालत आप देख लीजिए! पत्रकारिता की जहाँ तक बात है, पहले तो साहित्यकार ही पत्रकार होते थे ज्यादातर, वे बड़े प्रतिबद्ध लोग होते थे, भाषा और जन सरोकारों के प्रति। बाद में कारपोरेट मीडिया आया तो पत्रकार संस्थानों से निकलने लगे व्यापारियों के हितसाधन की क्षमता से लैस होकर। अभी तो जैसे भाषा कोई चीज ही नहीं रही। कहीं अब अखबारों में प्रूफ रीडर नहीं दिखाई देते। देखते-देखते विश्वीकरण या वैश्विकीकरण ‘वैश्वीकरण‘हो गया और राजनीतिक ‘राजनैतिक’। पत्रकारिता की भाषा तो स्वयं पत्रकार ही सुधार सकते हैं। आने वाले दिन इस लिहाज से और मुश्कित होने वाले हैं।
प्रीति – साहित्य में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की क्या प्रासंगिकता है?
शिवदयाल – ऐसा नहीं कि हिन्दी साहित्य अब तक दलित संवेदना या स्त्री संवेदना वाली रचनाओं से खाली था। लेकिन इसका एक विमर्शकारी रूप साहित्य में नब्बे के दशक में उभरकर आया। यह हाशिए की आबादियों के राजनीतिकरण का नतीजा है। जब उन्हें राजनीति में और सत्ता संरचना में जगह हासिल हुई तो एक अधिकारवादी अभिव्यक्ति उसकी साहित्य में भी हुई। यह सतत् लोकतंत्रीकरण का परिणाम है। मूक मुखर हुए हैं और वे स्वयं अपने बारे में लिखना-कहना चाहते हैं। दलित स्वयं अपनी कहानी कह रहे हैं और इसे दलित साहित्य कह रहे हैं, यानी ऐसा साहित्य जो दलित जीवन पर स्वयं दलितों द्वारा लिखा गया हो। स्त्रीवाद तो साहित्य में आया है लेकिन, ’स्त्री साहित्य‘तक बात नहीं पहुँची। शायद इसलिए कि स्त्री अपने आप में उसी प्रकार एक वर्ग नहीं है जैसे कि दलित। यह एक प्रकार का अस्मितावादी लेखन है जिसकी सीमाएँ हैं। देखना है एक प्रवृत्ति के रूप में हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा से कब तक अलग-अलग रह सकेगा। साहित्य वैसे बँटवारे का नही ऐक्य और सम्मिलन का माध्यम है, उपक्रम है। अगर यह भी विभाजन का ही माध्यम बना दिया गया तो फिर मनुष्य जाति के लिए कोई आशा नहीं।
प्रीति – इन दिनों क्या लिखना-पढ़ना चल रहा है? आपकी आने वाली किताबों के बारे में पाठक जानना चाहते हैं?
शिवदयाल – लिखना-पढ़ना तो चलता ही रहता है। कुछ लेख लिखे हैं। उसके बाद एक कहानी लिखी है जो जल्द ही छपेगी, कुछ कविताएँ भी लिखीं। हाँ, इस साल मेरा उपन्यास आना चाहिए। बिहार पर एक और किताब भी आएगी – ‘बिहार की राजनीति और विकास का द्वन्द्व’, इसमें बिहार विषयक मेरी टिप्पणियाँ व लेख हैं। एक और काम इस वर्ष होना है, संवेद (संपादक – किशन कालजयी) का एक अंक रमेशचंद्र शाह पर केन्द्रित होगा। इसके अतिथि संपादक की जिम्मेदारी मुझ पर है।
प्रीति – जैसा कि आपने बताया, कविता, कहानी और लेख के अलावा आपका उपन्यास आने वाला है। इसकी विषयवस्तु के केन्द्र में किस तरह का ताना-बाना बुना गया है?
शिवदयाल – उपन्यास सन् चौहत्तर के आंदोलन के अनंतर, और उसकी निरंतरता में विकसित जमीनी आंदोलनों की पृष्ठभूमि पर है। एक तरह से यह परिवर्तनकामी युवाओं का जीवन आख्यान है जिसमें आंदोलन का उन्मेष और बिखराव, दोनों दर्ज हैं। हमारे यहाँ अब तक शांतिपूर्ण, स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों से प्रेरित आंदोलन साहित्य, विशेषकर उपन्यास का विषय नहीं बन पाए जबकि आजादी के बाद से आज तक समाज और व्यवस्था को बदलने, समाज और राजनीति के लोकतंत्रीकरण में इनकी बहुत बड़ी भूमिका रही है। अलग-अलग इलाकों में दबाव समूहों के रूप में इनका अस्तित्व बना रहा है और जनपक्षधर नीतियाँ बनाने में इनका बड़ा योगदान है। यह उपन्यास सत्तर-अस्सी के दशक में न सिर्फ देश के अंदर बल्कि विदेशों में चले युवा आंदोलनों – क्लब ऑफ रोम, ग्रीन पीस से लेकर चीन के लोकतंत्रकारी छात्रों के संहार तक पर नज़र रखता है। सोवियत संघ के बिखराव और कम्यूटिस्ट सत्ताओं के विघटन सम्बंधी विवरण भी इसमें दर्ज है। भारत में वह तुमुल कोलाहल का दौर रहा, इसे भी उपन्यास में कैप्चर किया गया है।
डॉ. प्रीति प्रवीण खरे