भाषायी विविधता को बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ़ गैर-हिन्दी भाषियों की ?

रितेश प्रुषेथ
‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी।‘ यह कहावत भारत में समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्र में विकसित हुई सांस्कृतिक तथा भाषाई विविधता को दर्शाती है। भारत में ऐतिहासिक तौर पर कभी एक भाषा का प्रादुर्भाव नहीं रहा। भले ही आदि काल में  कुछ समय के लिए संस्कृत का प्रभाव पूरे भू-भाग पर था , लेकिन समानांतर रूप से क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकाश हो रहा था। आगे चलकर संस्कृत केवल एक सीमित वर्ग में सिमट कर रह गई। फिर क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से ही जनसाधारण ने आपस में संवाद किया। ये क्षेत्रीय भाषाएँ कभी आपस में नहीं टकराईं। अपने सीमित भौगोलिक क्षेत्र में विकसित हुई और निरंतर प्रवाहित भी हुईं। जिस कारण भारत के हर चार कोस पर भाषाई बदलाव को महसूस किया जा सकता है । 
इस भाषाई विविधता को प्राचीन भारत के किसी भी साम्राज्य ने कोई चोट नहीं पहुँचाई। भारत के जटिल सामाजिक संरचना के साथ भाषाई विविधता को सभी साम्राज्यों ने सम्मान दिया और कहीं भी अपने राजकीय भाषा को जनता के ऊपर नहीं थोपा । परिणामस्वरूप शासक और शासकीय भाषा संस्कृत रहते हुए भी तमिल , मलयालम , तेलगु , कन्नड़ तथा ओड़िआ जैसे लोक भाषाओं का विकास समय के साथ होता रहा। इसका अच्छा उदाहरण है  चोल जैसे साम्राज्य, जिनका अधिकार पूर्व से लेकर दक्षिण तथा सात समंदर पार के द्वीपों तक रहा। लेकिन उन्होंने कभी एक भाषा को पूरे सम्राज्य के ऊपर नहीं थोपा । हालांकि ये क्रम मध्य काल में थोड़ा डगमगाने लगा। मुस्लिम शासकों ने अपने अधिकार क्षेत्र में अपनी शासकीय भाषा को जनता के ऊपर थोपने का प्रयास किया । फारसी को राज्य के द्वारा बढ़ावा मिला। इस क्रम को अंग्रेजों ने आगे बढ़ाया। नौकरियों के नाम पर जनता को अंग्रेजी सीखने के लिए बाध्य किया। फिर ये क्रम और आगे बढ़ा और भारत के स्वाधीनता के बाद भी चला । देश में राजकीय भाषा के तौर पर हिंदी को घोषित किया गया और जनता को राष्ट्रप्रेम दिखाने और राष्ट्र की अखंडता को बचाने के नाम पर गैर हिन्दी भाषियों को हिंदी सीखने के लिए बाध्य किया गया ।
स्वाधीनता के बाद देश में भाषाई विविधता को खत्म करने के लिए अनेक षडयंत्र चल पड़े। देश में एक भाषा का प्रभुत्व हो,  इसके लिए अनेक प्रयास हुए। देश की राजधानी और सत्ता का केंद्र हिंदी पट्टी में होने के कारण केंद्रीय शासन तंत्र द्वारा हिंदी को अन्य भाषाओं से अधिक महत्व दिया गया । देश के अन्य गैर-हिन्दी प्रदेश के लोग देश की राजधानी तथा सत्ता के मुख्य स्रोत के साथ संवाद करने के लिए हिंदी सीखने के लिए मजबूर किए गए। जबकि हिंदी पट्टी के लोगों ने देश के अन्य भागों की जनता की स्थिति को समझने के लिए विशेष रुचि नहीं दिखाई तथा दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं को महत्व नहीं दिया। इस कारण अन्य प्रदेशों में पुरातन काल से विकसित हुई भाषा और संस्कृति अब केवल सीमित क्षेत्र में सिमट कर रह गयी और हिंदी के बढ़ते अप्राकृतिक प्रभाव के कारण खत्म होने की कगार तक पहुंच गई।
भारत में भाषाई विविधता का निरंतर विकास होता क्रम अब रुकता नजर आ रहा है। देश को संगठित रखने के नाम पर एक भाषा को पूरे देश के जनमानस में थोपा जा रहा है। अप्राकृतिक उपाय किए जा रहे हैं,  रोज नए हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। केंद्रीय शासन तंत्र के अधिकार क्षेत्र में आ रहे संसाधनों का उपयोग कर एक भाषा को बढ़ाने के लिए दूसरी भाषाओं को दबाया जा रहा है। स्वाधीनता के उपरांत, भारत में हिंदी को जनता के ऊपर लादने के लिए सरकारों के द्वारा जितना धनबल का प्रयोग किया गया, शायद ही किसी अन्य भारतीय भाषा के विकास और संरक्षण के लिए किया गया हो। अब यहाँ तक प्रयास होने लगे कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को ही सम्पूर्ण भारत की भाषा के तौर पर पेश किया जा रहा है । भारत के प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर केवल हिंदी में अपना भाषण दे सकें , इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा अपने तिजोरी तक खोलने का प्रस्ताव लोकसभा में पारित करने का प्रयास किया गया ।
भारत के लोगों ने कभी भाषाई एकछत्रवाद को स्वीकार नहीं किया है। गैर-हिन्दी भाषी प्रदेश के जनता को सरकारी प्रतिपोषण से हिंदी का विकास होने से भी कोई एतराज नहीं है। लेकिन इस प्रक्रिया में हिंदी पट्टी के लोगों में विकसित हो रही उपनिवेशवादी भावनाओं से गैर-हिन्दी भाषियों को दिक्कत जरूर है। एक ओर जहाँ हिंदी पट्टी के लोग हिंदी को सम्पूर्ण देश पर थोपकर दूसरों को हिंदी सिखाना तो चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर  वे अन्य भारतीय भाषाओं को खुद सीखना नहीं चाहते। स्वाधीनता के बाद भारत के गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों की जनता ने हिंदी को स्वीकार किया, सीखने का प्रयत्न किया । लेकिन हिंदी पट्टी के लोगों ने ना कभी तमिल, तेलगु, मलयालम, ओड़िया, बांग्ला, गुजराती ना मराठी ना कोई अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने का प्रयाश किया । इस तरह एकतरफा भारत के भाषाई विविधता को बचाने की जम्मेदारी कब तक गैर-हिन्दी भाषी लोगों को ही दिया जाएगा । इससे स्वाभाविक सवाल उत्पन्न होता है कि क्या भारत की भाषायी विविधता को बचाने की जिम्मेदारी केवल गैर-हिन्दी भाषियों की ही है?

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